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मनुष्यता से बढ़कर कोई धर्म नहीं | Swami Satyamitranand Ji Maharaj | Adhyatam Ramayan | Pravachan

भारत माता की इस प्रस्तुति में स्वामी सत्यमित्रानंद गिरि जी महाराज बताते हैं कि ब्रह्मा जी ने जब भगवान से प्रार्थना की, तो भगवान ने कहा — “हे ब्रह्मा, उस राक्षस का वध केवल तभी संभव है जब मैं स्वयं मानव रूप में अवतार लूँ।” स्वामी जी कहते हैं कि यह विचार अत्यंत गहन है, क्योंकि इसमें मानव जीवन की परम महत्ता छिपी है।

उन्होंने बताया कि एक शास्त्र की छोटी-सी पंक्ति — “न मानुषं तरं किंचित्” — कहती है कि मनुष्य से श्रेष्ठ कुछ भी नहीं। न कोई धर्म, न कोई तत्व, न कोई जीवन दर्शन। भगवान श्रीराम की कथा में भी यही बात प्रत्यक्ष होती है, जब ब्रह्मा जी स्वयं भगवान से निवेदन करते हैं कि “प्रभु, आप ही मनुष्य बनकर रावण का अंत कीजिए।”

यह तथ्य बताता है कि मनुष्य होना केवल जन्म की स्थिति नहीं, बल्कि एक दिव्य जिम्मेदारी है। मनुष्य में ईश्वर की झलक होनी चाहिए, तभी वह अपने जीवन का उद्देश्य पूरा कर सकता है।

मनुष्य: ईश्वर की सर्वोत्तम रचना

स्वामी जी आगे समझाते हैं कि मनुष्य, ईश्वर की सृष्टि का सर्वोत्तम रूप है, परंतु यही मनुष्य जब अपने भीतर के ईश्वर को भूल जाता है, तब वही सबसे अधम भी बन जाता है। उन्होंने एक सुंदर उदाहरण दिया — जैसे एक सिक्के के दो पहलू होते हैं, एक पर उसकी कीमत और दूसरे पर राष्ट्र का चिन्ह।

यदि किसी एक पहलू का अभाव हो, तो सिक्का बेकार हो जाता है। उसी प्रकार, हर मनुष्य ईश्वर की टकसाल में ढला हुआ सिक्का है — उसके एक पहलू पर ईश्वर का नाम और दूसरे पर उसकी छवि होनी चाहिए। यदि यह दोनों नहीं हैं, तो वह खोटा सिक्का है, जो समाज में स्वीकार्य नहीं हो सकता।

मनुष्य का उद्देश्य और धर्म

स्वामी जी कहते हैं कि यह प्रसंग हमें यह सिखाता है कि मनुष्य का शरीर एक अवसर है — ईश्वर को पहचानने, भक्ति करने और सृष्टि में सद्कार्य करने का माध्यम। शास्त्रों में कहा गया है — “इदं शरीरं क्षणभंगुरम्” — यह शरीर नश्वर है, पर यदि इसका उपयोग ईश्वर के नाम में, भक्ति में और सेवा में किया जाए, तो यही शरीर अमरत्व का साधन बन जाता है। यही सच्चा मानव धर्म है।

सच्चा मानव और दिव्यता का अनुभव

स्वामी जी आगे तुलसीदास जी के शब्दों का उल्लेख करते हैं, जहाँ वे अपने मन की मूढ़ता पर करुणा प्रकट करते हैं — “हे मन, तू कितना मूढ़ है! तुझे रामभक्ति रूपी गंगा मिली है, फिर भी तू ओस के कणों जैसी क्षणिक वस्तुओं में सुख ढूँढता है।”

स्वामी जी समझाते हैं कि जीवन में जब ज्ञान और भक्ति की गंगा प्राप्त है, तब क्षणिक भौतिक सुखों की ओर न जाना ही सच्चा मानव धर्म है। यदि मनुष्य अपने भीतर ईश्वर का भाव और छवि दोनों रखता है, तभी वह समाज और सृष्टि में सकारात्मक योगदान कर सकता है।

इस प्रकार, सच्चा मानव वही है जो अपने कर्मों और भक्ति से संसार को बेहतर बनाए, और यही मनुष्य का वास्तविक गौरव है।