ईश्वर हमारे मन की हर बात जानता है। Swami Satyamitranand Ji Maharaj | Adhyatm Ramayana | Pravachan

भारत माता की इस प्रस्तुति में स्वामी सत्यमित्रानंद गिरी जी महाराज बताते हैं की, उपनिषदों में कहा गया है – "साक्षी चेता केवलो निर्गुणः"।

परमात्मा: साक्षी पर करुणा की छाया

परमात्मा वास्तव में साक्षी है, वह केवल जानने वाला है, और पूर्णतः निर्गुण है। वह सारे चैतन्य का चैतन्य है, सबका साक्षी है, लेकिन कर्ता या भोक्ता नहीं है। फिर भी, उसकी करुणा इतनी विशाल और गहन है कि वह संसार के सभी प्राणियों के सुख-दुख को देखते हुए भी न्याय की घड़ी में पीछे हट जाता है। संसार में यदि कोई अपराध हो जाए और कोई साक्षी उसे न्यायालय में जाकर प्रमाणित कर दे, तो उस साक्ष्य के आधार पर कठोर दंड मिल सकता है – जैसे हत्या के मामले में आजीवन कारावास तक। इसलिए "साक्षी" शब्द सुनते ही व्यक्ति के भीतर एक भय उत्पन्न होता है। लेकिन जब यही शब्द परमात्मा के लिए आता है, तो उसके साथ-साथ उसकी अपार करुणा का स्मरण भी होने लगता है। क्योंकि परमात्मा केवल बाहरी कर्मों का ही नहीं, हमारे प्रत्येक अंतर विचार, भावना और प्रेरणा का भी साक्षी है।

फिर भी, जब यमराज और धर्मराज किसी जीव के कर्मों का न्याय करने बैठते हैं, तब यह सर्वज्ञ परमात्मा कभी जाकर यह नहीं कहता कि “मैं इसका साक्षी हूं।” वह दूर रहता है। वह अपने भक्त को दंड दिलवाने की बात में कभी हस्तक्षेप नहीं करता। यह उसकी करुणा की पराकाष्ठा है। प्रत्येक जीव को उसके कर्मों के अनुसार फल अवश्य मिलता है, लेकिन परमात्मा उस प्रक्रिया में शामिल नहीं होता। वह केवल साक्षी रहता है, पर कभी साक्ष्य नहीं देता। यही विचार जब भीतर गहराता है, तो "साक्षी" शब्द केवल निर्गुण ब्रह्म का बोध नहीं कराता, बल्कि परमात्मा की उस असीम करुणा का भी स्मरण कराता है जो वह अपने बच्चों के लिए रखता है।

संसार में लोग कई बार दूसरों को ब्लैकमेल करते हैं। वे कहते हैं कि हमें तुम्हारे बारे में एक बात पता है, और झूठी साक्षी बनाकर अपने स्वार्थ सिद्ध करने की चेष्टा करते हैं। लेकिन परमात्मा का साक्षित्व पूर्णतः निष्पक्ष और करुणामय है। वह किसी के पक्ष में बोलता नहीं, किसी को दोष नहीं देता। वह स्वयं में स्थित रहकर सम्पूर्ण जगत का दृष्टा है, फिर भी अविकृत रहता है। जीव में विकृति आती है – वह परिस्थितियों से बदलता है, लेकिन ब्रह्म तो अविकारी है। जब हम परमात्मा को साक्षी के रूप में स्मरण करते हैं, तो उस शुद्ध, स्थिर, और शांत स्वरूप का भी स्मरण होता है।

आकाश की प्रकार: आभास से सत्य की ओर

कल प्रवचन में तीन प्रकार के आकाशों की चर्चा हुई थी – कि वास्तविक आकाश तो वह है, जिसमें सब कुछ अंत में समा जाता है। महदाकाश की तरह परमात्मा भी सर्वत्र व्याप्त है। परन्तु हम मनुष्य सामान्यतः आभास को ही सत्य मानने लगते हैं। जो सुख जैसा प्रतीत होता है, उसे ही सुख मान बैठते हैं। लेकिन सुख का जो आभास है, वह अक्सर मिथ्या होता है – यह केवल अज्ञान और अविद्या का कार्य है। जहां वास्तव में सुख नहीं है, वहां हम सुख की कल्पना कर लेते हैं, और जब वह कल्पना टूटती है, तब दुःख का अनुभव होता है। आनंद तो आत्मा की स्थिति है, वह कभी दुःख नहीं देता, लेकिन सुख का भ्रम जब मिटता है, तब कष्ट होता है। परमात्मा ने हमें जो बुद्धि दी है, वह सबसे बड़ी देन है। अगर बुद्धि न हो तो मनुष्य और पशु में कोई अंतर नहीं रहता। लेकिन जब उस बुद्धि पर अविद्या का प्रभाव विशेष रूप से बढ़ जाता है, तब व्यक्ति वहां सुख खोजता है जहां वह है ही नहीं। जो बात हमें प्राप्त करनी है, उसे वहीं खोजें जहां वह वास्तव में है।

इसी सन्दर्भ में एक उदाहरण स्मरणीय है – एक पथिक रास्ते से जा रहा था। उसे एक सरोवर मिला। सरोवर के जल में उसे एक सुंदर सा हार चमकता हुआ दिखाई पड़ा। उसके मन में विचार आया कि अगर यह हार मिल जाए तो गरीबी से मुक्ति मिल सकती है। वह तुरंत पानी में कूद गया और गहराई तक जाकर उसे पाने का प्रयास करने लगा। पर वह हार मिला नहीं। उसके बाद कई और लोग भी आए और उसी हार को पाने के लिए जल में कूद पड़े, पर सब विफल रहे। अंततः एक सजग साधक आया। उसने शांत मन से सोचा – अगर यह हार वास्तव में धातु का बना है, तो वह पानी में ऊपर कैसे तैर सकता है? उसने ऊपर दृष्टि की और देखा कि एक पक्षी उसे किसी महल से चोंच में दबाकर उड़ आया था और वृक्ष की एक शाखा पर वह हार अटक गया था। जल में जो चमक रहा था, वह केवल उसका प्रतिबिंब था। उसने उस हार को पेड़ से प्राप्त किया, और अपने घर ले जाकर धन प्राप्त किया।

साधना का उद्देश्य: आत्मा की ओर दृष्टि

यह उदाहरण यही बताता है कि संसार में हमें कई बार भोग और सुख का केवल प्रतिबिंब दिखाई देता है। हम उसे वास्तविक मान बैठते हैं और बार-बार जल में कूदते हैं। जबकि असली सुख, असली मोती, कहीं और होता है – ऊपर, भीतर, आत्मा में। जब हम अधो दृष्टि को त्यागकर ऊर्ध्व दृष्टि करते हैं, तब हमें सच्चाई का दर्शन होता है। आप साधना शिविर में आए हैं, इसका एक बड़ा लाभ यह है कि आपकी अधो दृष्टि कम हो और ऊर्ध्व दृष्टि जागृत हो। ऊर्ध्व दृष्टि का अर्थ है – परमात्मा की ओर देखना, आत्मा की ओर लौटना। गीता के 15वें अध्याय में कहा गया है कि संसार एक ऐसा वृक्ष है जिसका मूल ऊपर है – यानी परमात्मा में, और शाखाएं नीचे की ओर फैली हैं – यानी संसार में। जब व्यक्ति उस ऊर्ध्वमूल परमात्मा की ओर दृष्टि करता है, तभी उसे आत्मबोध होता है।

जो साधक बार-बार उस परमात्मा का स्मरण करता है, वह अनुभव करता है कि सच्चा सुख आत्मा से उत्पन्न होता है, बाहर की वस्तुओं से नहीं। परमात्मा के साक्षी रूप का ध्यान करते-करते जब वह अंतर्मुख हो जाता है, तब उसे उस निर्गुण ब्रह्म की अनुभूति होती है। दो प्रकार के दर्शन हैं – एक अनुभवजन्य और दूसरा प्रत्यक्ष। प्रत्यक्ष दर्शन – सगुण साकार रूप में – बहुत थोड़े लोगों को मिलते हैं। इतिहास में हमें मीरा, कबीर, तुकाराम जैसे थोड़े ही उदाहरण मिलते हैं। लेकिन निर्गुण परमात्मा का अनुभव – वह किसी को भी हो सकता है, जो साधना और आत्मचिंतन में लीन हो।

प्रत्यक्ष दर्शन दुर्लभ हैं क्योंकि सगुण साकार भगवान के सामने प्रकट होने के लिए व्यक्ति को बहुत तपश्चर्या करनी पड़ती है। मन, इंद्रियों और विषयों से निवृत्त होना पड़ता है। जब तक साधक अपने भीतर पूर्ण समर्पण और अचलता नहीं लाता, तब तक परमात्मा भी प्रतीक्षा करता है। लेकिन जब साधक स्थिर हो जाता है, चंचलता त्याग देता है, तब परमात्मा भी, जो स्वयं अचल है, उसकी साधना के प्रति सजीव होकर प्रकट होने को विवश हो जाता है। चाय, विश्राम, सुख-सुविधा से बंधे हुए मन से जब तक साधना की जाती है, तब तक केवल कल्पना मिलती है। लेकिन जब मन संसार को भूलकर केवल परमात्मा में रमण करने लगता है, तब उस परम ब्रह्म का प्रत्यक्ष अनुभव होता है। जब आप नहीं हिलते, तब वह हिलता है। जब आप भीतर स्थिर हो जाते हैं, तब वही परमात्मा जो सदा निष्क्रिय है, सजीव हो उठता है और प्रकट होता है – उस रूप में, जिसमें आपने ध्यान किया होता है।

परमात्मा कोई वस्तु नहीं जो बाहर खोजी जाए। वह तो पहले से ही आपके भीतर है। वह साक्षी है, मौन है, लेकिन करुणामय है। वह न्याय करता है, पर साक्षी बनकर दंड नहीं देता। वह प्रेमपूर्वक आपके साथ है – और जब आप उसकी ओर एक कदम बढ़ाते हैं, तो वह सौ कदम बढ़ाता है। इसलिए उसकी अनुभूति करना कठिन नहीं है, लेकिन इसके लिए भीतर की स्थिरता आवश्यक है। जब साधना में आप संसार को भूलने लगते हैं, तब संसार में रहते हुए भी आप परम सत्य से जुड़ने लगते हैं।