जानकी माता ने हनुमान को क्या उपदेश दिया | Swami Satyamitranand Ji Maharaj | Adhyatmik Ramayan
भारत माता की इस प्रस्तुति मे स्वामी सत्यमित्रानंद गिरी जी महाराज कहते हैं कि समय-समय पर परमात्मा ऐसे प्रेरणादायक उदाहरण प्रस्तुत करते हैं, जिनसे संसार में भयभीत और दुःखी जीवन जी रहे लोगों को यह विश्वास हो सके कि भगवान ही सच्चे अर्थों में निर्भयता दे सकते हैं। जब संसार की कोई व्यवस्था, सत्ता या विचारधारा लोगों को थोड़े समय के लिए अभय देने का प्रयास करती है, तब कुछ लोग यह सोचकर प्रसन्न हो जाते हैं कि अब उनका शासन है, उनके दल का नेता है, लेकिन यह अभय स्थायी नहीं होता। चाहे कोई कितना भी बड़ा शासक क्यों न हो, वह पूरी प्रजा को सच्चा और स्थायी भयमुक्त जीवन नहीं दे सकता। केवल परमात्मा ही हैं, जो सबको पूर्ण और सच्चा अभय दे सकते हैं।
श्रीकृष्ण और पूतना वध – करुणा का उदाहरण
भगवान श्रीकृष्ण का पूतना वध प्रसंग इसका एक अद्भुत उदाहरण है। पूतना एक राक्षसी थी, जिसने अपने जीवन में अनेक शिशुओं का वध किया था। वह श्रीकृष्ण को भी मारने के उद्देश्य से आई थी। उसने माता का रूप धारण किया और विष पिलाने की योजना बनाई। लेकिन जब वह भगवान के सामने आई, तब महर्षि वेदव्यास जी लिखते हैं कि उस क्षण भगवान ने केवल उसका अपराध नहीं देखा, बल्कि उसके भीतर की भावना को भी समझा। यद्यपि वह छल करके श्रीकृष्ण को मारने आई थी, फिर भी उसके अंतर में कहीं यह भाव भी था कि शायद भगवान के साक्षात्कार से मेरा कल्याण हो जाए। यही प्रपन्नता (शरणागत भाव) थी। भगवान ने जब यह देखा कि वह सन्मुख होकर उनके पास आई है, तो उन्होंने उसे दंड देने के बजाय वह गति दी जो एक धाय (पालन-पोषण करने वाली स्त्री) को मिलती है। यह भगवान की करूणा और उनकी प्रतिज्ञा का प्रमाण है कि जो भी उनके सामने सच्चे मन से आता है, वे उसका उद्धार अवश्य करते हैं।
श्रीराम के प्रसंग में भी यह भाव देखने को मिलता है। जब हनुमान जी राम सेवा में आए, तब जानकी जी ने एक महत्वपूर्ण बात कही कि यदि तुम श्रीराम को केवल राजा, धनुर्धारी, या अयोध्या के राजकुमार मानकर सेवा करोगे तो लाभ सीमित होगा। राम को केवल एक मनुष्य रूप में मत देखो। राम वही परम ब्रह्म हैं — सच्चिदानंद, अद्वय और सर्वव्यापक। वे न किसी एक उपाधि से बंधे हैं, न किसी एक स्वरूप में सीमित हैं। जानकी जी के इन वचनों के माध्यम से यह सन्देश सम्पूर्ण भक्तों और संसार को दिया गया कि भगवान को कभी सीमित दृष्टि से नहीं देखना चाहिए। यदि उन्हें केवल वनवासी मान लिया जाए, तो फिर यह सोचना कठिन हो जाता है कि वे घट-घट में कैसे विराजमान हो सकते हैं। इसीलिए राम को ब्रह्म मानकर, निरुपाधि और सच्चिदानंद रूप में समझना ही उचित है।
जीवन की तीन बाधाएं: आदि, व्याधि और उपाधि
मानव जीवन में तीन प्रकार की बाधाएं होती हैं – आदि, व्याधि और उपाधि। आदि का अर्थ है किसी वस्तु का अभाव। यह अभाव मनुष्य को भीतर से कचोटता है, विशेषकर तब जब वह देखता है कि अन्य लोग उस वस्तु के मालिक हैं। कभी-कभी यह अभाव किसी के द्वारा बार-बार जताया जाता है, जिससे मनुष्य को वह अभाव अधिक तीव्र लगने लगता है। दूसरी बाधा है व्याधि, यानी रोग। आज के युग में न केवल शारीरिक रोगों की संख्या बढ़ गई है, बल्कि मानसिक रोगों ने भी जीवन को जटिल बना दिया है। पहले कहा जाता था कि "अन्न के बिना प्राण नहीं चलते", लेकिन आज की स्थिति यह हो गई है कि "औषधि के बिना प्राण नहीं चलते"। हर घर में दवाइयों का स्थान हो गया है। शारीरिक रोग के लिए तो चिकित्सालय हैं, लेकिन मानसिक रोग के लिए ध्यान, साधना और ईश्वर की शरण ही एकमात्र उपाय है।
तीसरी बाधा है उपाधि — यानि मनुष्य को दी गई कोई पहचान या उपलब्धि, जैसे पद, सम्मान या धन-संपत्ति। ये चीजें बाहर से आकर्षक लगती हैं लेकिन अंदर से कभी-कभी कष्टदायक हो जाती हैं। उदाहरणस्वरूप, कोई व्यक्ति सबसे पहले टेलीविजन खरीदता है और उसके कारण पड़ोसी बच्चे बार-बार उसके घर आकर उसे परेशान करने लगते हैं। तब वही टेलीविजन, जो कभी गर्व की वस्तु थी, अब उपाधि बनकर कष्ट का कारण बन जाती है।
निष्कर्ष: भगवान की कृपा से मोक्ष संभव है
इसलिए जीवन का असली सुख तब है जब हम परमात्मा की शरण में जाकर इन तीनों कष्टों से मुक्ति पाएं। केवल वेश बदल लेना या आश्रम में चले जाना ही साधुता नहीं है, मन की व्याधियों पर विजय प्राप्त करना ही असली साधना है। यह विजय केवल भगवान की कृपा से ही संभव है। जब हम सच्चे भाव से उनके सन्मुख होते हैं, तो वे हमारे करोड़ों जन्मों के पापों को भी क्षमा कर मोक्ष का मार्ग प्रशस्त कर देते हैं।