जीवन का लक्ष्य आत्मदर्शन है | Swami Satyamitranand Ji Maharaj | Adhyatm Ramayana | Pravachan

भारत माता की इस प्रस्तुति में स्वामी सत्यमित्रानंद गिरी जी महाराज बताते हैं कि मनुष्य अपने आसपास लोगों के नित्य प्रस्थान को देखकर भी यह भ्रम पालता है कि वह इस संसार में स्थायी रूप से रहेगा। जब कोई व्यक्ति कथा या प्रवचन सुनता है, या किसी अपने को अंतिम विदाई देने श्मशान जाता है, तो क्षणिक वैराग्य की अनुभूति होती है, परंतु वह स्थायी नहीं रहती।

यदि यही वैराग्य जीवन में स्थायी हो जाए, तो व्यक्ति मोक्ष का अधिकारी बन सकता है। शास्त्रों में कहा गया है कि पुराण श्रवण, श्मशान गमन और भोगों के उपरांत जो वैराग्य उत्पन्न होता है, यदि वह स्थाई हो जाए, तो वही सच्चा विवेक है। दुर्भाग्यवश मनुष्य पुनः मोह में लौट आता है, और बाहरी प्रदर्शन, दिखावा, और दूसरों की तुलना में स्वयं को बेहतर सिद्ध करने की लालसा में उलझ जाता है।

वैराग्य और आत्मचिंतन का महत्व

आज के समय में जब अंतर्दर्शन की परंपरा धूमिल हो रही है और बाह्य प्रदर्शन ही मूल्य बनता जा रहा है, तब व्यक्ति अपनी आत्मा से दूर होता चला जाता है। यही कारण है कि चेहरे सजते हैं, लेकिन मन अशांत रहते हैं। भरतहरि के चातक पक्षी की तरह हम भी बार-बार उन बादलों की ओर देखते हैं जो केवल गरजते हैं, पर बरसते नहीं।

हम अपने सुख की आशा रिश्तों, धन, प्रतिष्ठा, रूप, सत्ता और सम्मान से करते हैं, पर सच्चा सुख इनमें नहीं, केवल परमात्मा की शरण में है। हमें मांगना है तो केवल अपने आराध्य से मांगना चाहिए, निष्ठा भी केवल उसी में रखनी चाहिए। जब तक हम भीतर की खोज नहीं करेंगे, आत्मा की शांति नहीं मिलेगी।

पौराणिक दृष्टांत और सत्य की अनुभूति

संसार का भौतिक ज्ञान कितना भी हो जाए, यदि आत्म ज्ञान से दूर हो गए तो जीवन अधूरा ही रहेगा। पौराणिक कथा में जब रावण के भार से पृथ्वी दबी जा रही थी, तब सभी देवताओं ने ब्रह्मा जी के साथ समुद्र के तट पर जाकर भगवान विष्णु की शरण ली, क्योंकि गहराई में ही ईश्वर का वास है।

यह प्रतीक है कि जब तक हम अपने भीतर की गहराई में नहीं उतरते, तब तक परमात्मा की अनुभूति नहीं होती। कबीर भी कहते हैं—“जिन खोजा तिन पाईया, गहरे पानी पैठ।” जब तक व्यक्ति अपने सारे स्वार्थ, अहंकार और मोह छोड़ने को तैयार नहीं होता, तब तक उसे केवल संसार के दिखावे ही मिलते हैं, सत्य नहीं।

भगवान तब ही प्रकट होते हैं जब हम कहें कि अब हम केवल आपको चाहते हैं, आपकी कृपा नहीं, आपका साक्षात्कार। इसलिए जीवन में आत्मचिंतन, वैराग्य और निष्ठा आवश्यक है। जो समय ईश्वर के स्मरण में बीते, वही दिन सार्थक है, वही जीवन पूर्ण है।