नारायण का क्या अर्थ है? | Swami Satyamitranand Ji Maharaj | Pravachan | महाकुंभ प्रयागराज
भारत माता चैनल प्रस्तुत करता है स्वामी सत्यमित्रानंद गिरी जी महाराज की वाणी से प्रस्फुटित "कुम्भ की स्मृतियाँ"।
कुम्भ की महिमा: स्वामी जी का विश्लेषण | स्वामी सत्यमित्रानंद जी की विशेष दृष्टि से "कुम्भ की स्मृतियाँ
स्वामी जी ने कुम्भ के महत्व को अपने विशिष्ट दृष्टिकोण से स्पष्ट किया। उनका कहना था कि कुम्भ एक मात्र एक तीर्थ स्थल नहीं, बल्कि एक ऐसा अद्भुत अनुभव है, जहां व्यक्ति अपने आत्मा से जुड़ने के लिए एक अवसर प्राप्त करता है।
स्वामी जी कहते हैं, "वहीं व्यक्ति राम का भक्त हो सकता है जो जागृत हो।" उनका अभिप्राय था कि केवल शारीरिक उपस्थिति से कोई भी श्रद्धा या भक्ति पूर्ण नहीं होती, बल्कि व्यक्ति का मन, चेतना और आत्मा जब जागृत होते हैं, तभी वह वास्तविक रूप से भक्ति का अनुभव कर सकता है। कुम्भ मेला यही अवसर प्रदान करता है—यह एक दिव्य मिलन स्थल है, जहां लाखों लोग न केवल अपने शरीर को शुद्ध करने के लिए स्नान करते हैं, बल्कि अपने मन, आत्मा और भावनाओं को भी शुद्ध करते हैं।
स्वामी जी ने कुम्भ की महिमा को बहुत सुंदरता से समझाया। उन्होंने कहा कि लाखों-करोड़ों लोग कुम्भ में शामिल होते हैं, लेकिन इसका उद्देश्य केवल व्यक्तिगत जीवन को बेहतर बनाना नहीं है। स्वामी जी के अनुसार, "हम सब किसी के अंश हैं, और जब तक अंश अपने अंशी से मिलता, तब तक वह संतुष्ट नहीं होता।" यह अंश और अंशी का मिलन केवल आत्मिक स्तर पर ही संभव है। कुम्भ मेला इस मिलन का प्रतीक है। यह हर व्यक्ति को अपने स्रोत, अपने परमात्मा से जोड़ने का एक साधन है। जब आत्मा और परमात्मा का मिलन होता है, तब व्यक्ति को आत्म-संतोष और शांति मिलती है।
माता गंगा का महत्व | कुम्भ मेला: आत्मा और परमात्मा के मिलन का प्रतीक
स्वामी जी ने माता गंगा के महत्व पर भी प्रकाश डाला। वे कहते हैं, "माता गंगा नारायण के चरणों से निकली है, इसीलिए अनेक लोगों ने उनका नाम विष्णुपदी रखा।" स्वामी जी का यह कथन गंगा के दिव्य महत्व को स्पष्ट करता है। माता गंगा को विष्णु के पद से जुड़ा हुआ माना जाता है, क्योंकि वे इस पृथ्वी पर भगवान विष्णु के आशीर्वाद से ही प्रकट हुईं। गंगा का पवित्र जल हर जीव के शरीर और आत्मा को शुद्ध करता है, और यही कारण है कि लोग कुम्भ में गंगा स्नान करने के लिए आते हैं। वे कहते हैं, "यही कारण है कि माता गंगा तब तक शांत और प्रसन्न नहीं होती जब तक उन्हें विष्णु का पद दर्शन नहीं होता।
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