आप परमात्मा को नहीं मानते लेकिन परमात्मा आप को मानता है | Swami Satyamitranand Giri ji Maharaj
भारत माता की इस प्रेरणादायक प्रस्तुति में स्वामी सत्यामित्रानंद गिरि जी महाराज ने भगवद गीता के श्लोकों का उल्लेख करते हुए अत्यंत गूढ़ और महत्वपूर्ण सिद्धांतों पर प्रकाश डाला। उन्होंने गीता के एक प्रसिद्ध श्लोक का वर्णन करते हुए कहा –
मनुष्याणां सहस्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धये।
यततामपि सिद्धानां कश्चिन्मां वेत्ति तत्त्वतः।।
गीता के श्लोक का अर्थ
हजारों मनुष्यों में से कोई एक व्यक्ति ही सत्य की खोज में वास्तविक प्रयास करता है, और उन सिद्धों में से भी कोई एक ही मुझे, अर्थात परमात्मा को, तत्त्व से जानता है।
स्वामी जी ने इस श्लोक के माध्यम से यह स्पष्ट किया कि अधिकांश लोग जीवन की भागदौड़ में खो जाते हैं और परमात्मा की खोज में गंभीर प्रयास नहीं करते। उनके अनुसार, भौतिक जगत की दौलत और मान-मर्यादा की प्राप्ति में लोग अधिक रुचि रखते हैं, लेकिन आत्मा की सच्ची शांति और परम सत्य की प्राप्ति के लिए वे कठोर साधना और आत्ममंथन की ओर नहीं बढ़ते।
आत्म-जागरूकता और आत्म-समझ की आवश्यकता
स्वामी जी ने आगे कहा कि जो लोग भगवान के प्रति निरंतर भक्ति, ध्यान, पूजा और सदाचार में अपने आप को समर्पित नहीं कर पाते, उन्हें निराश होने की कोई आवश्यकता नहीं है। जीवन में कभी भी परिस्थितियाँ बदल सकती हैं, और इस बदलते हुए संसार में हर व्यक्ति को अपनी आत्मिक यात्रा पर ध्यान केंद्रित करने का समय मिल सकता है।
उन्होंने कहा कि परमात्मा को प्राप्त करने के लिए सबसे पहले आत्म-जागरूकता और आत्म-समझ की आवश्यकता होती है। जब तक हम अपने भीतर की शांति, समर्पण और ध्यान को विकसित नहीं करते, तब तक हम परम सत्य को नहीं जान सकते। आत्मजागृति के बिना कोई भी प्रयास अधूरा रहता है।
आत्म-जागृति की निरंतर प्रक्रिया
स्वामी जी ने यह भी समझाया कि जीवन के विभिन्न पहलुओं से संबंधित उलझनें और बाहरी आकर्षण हमें अपने लक्ष्य से भटका सकते हैं। परंतु, यदि हम अपने अंतर्मन में गहरी शांति और ध्यान के द्वारा आत्म-ज्ञान प्राप्त करने का प्रयास करें, तो परमात्मा की वास्तविक पहचान संभव हो सकती है। आत्म-जागृति एक निरंतर प्रक्रिया है, जो जीवन भर चलती रहती है, और यह हमें जीवन के हर पहलू को समझने की दृष्टि प्रदान करती है।
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