प्रतिकूलता में भी प्रसन्न रहिए | Swami Satyamitranand Ji Maharaj | Adhyatma Ramayan | Pravachan
भारत माता की इस प्रस्तुति में स्वामी सत्यमित्रानंद गिरी जी महाराज ने वर्णित किया है कि मनुष्य की भीतर की व्याकुलता, उसकी जीवन की तीव्रता — इन सबका अंत केवल परमात्मा के स्मरण, ध्यान, गुणगान और उनके साथ एकत्व में ही संभव है। यह कोई केवल कहने की बात नहीं, यह अनुभव है — ऋषियों का, महात्माओं का, और उन साधकों का जिन्होंने स्वयं इसे जिया है। और यही अनुभव धीरे-धीरे हम सभी का भी बनना चाहिए।
भारतीय भूमि का आध्यात्मिक संस्कार
हमारी कठिनाई यही है कि हम परमात्मा के बिना जी नहीं सकते, क्योंकि यह इस भूमि का संस्कार है। यहां के कण-कण में ऋषियों की तपस्या के अंश समाए हैं, जिससे एक साधारण व्यक्ति भी अध्यात्म की ओर सहज रूप से उन्मुख होता है। उसे गहराई से शास्त्रों का अध्ययन न भी हो, तो भी परमात्मा के प्रति उसकी श्रद्धा अडिग होती है।
ऋषियों की धरोहर और जनमानस का भाव
यह देश ऐसा है जहां एक गरीब किसान, एक मजदूर, दुख में भी यह कह देता है — "सो जो राम रच राखा, को करि तर्क बढ़ा शाखा।" उसका यह भाव ऋषियों की ही धरोहर है।
श्रीरामचरितमानस से आध्यात्मिक संवाद की शुरुआत
स्वामी जी कहते हैं कि मैं यह नहीं कहता कि मैं कथा पूर्ण कर सकूंगा, क्योंकि मैं कोई पारंपरिक कथावाचक नहीं। मेरी रूचि केवल इस बात में है कि भगवान के गुणों का चिंतन किया जाए, शास्त्रों की बातें की जाएं, और इसी में आनंद लिया जाए। इसलिए इस बार मैंने निर्णय लिया कि श्रीरामचरितमानस के बालकाण्ड से इस 30 दिवसीय चर्चा की शुरुआत हो।
श्रीराम के प्रति अटूट भक्ति
मेरे इष्टदेव हैं श्रीराम। मैं भगवान शंकर से भी यही प्रार्थना करता हूं कि मेरा प्रेम सदैव श्रीराम के चरणों में बना रहे।
परमात्मा की कृपा और जीवन की सीख
भगवान ने जीवन में अनगिनत कृपा की है। जब कभी मन विचलित हुआ, उसने स्वयं लगाम खींची — चाहे बीमारी के माध्यम से ही क्यों न हो। मैं इसे दंड नहीं, कृपा मानता हूं। क्योंकि जब जीवन में प्रतिकूलताएं आती हैं, तो वे केवल हमारे कर्मों का ऋण चुकाने का अवसर होती हैं। कर्ज चुकाने में सुख होता है, उसे बनाए रखने में नहीं।
प्राचीन भारत की ऋणमुक्ति की परंपरा
प्राचीन भारत में हर व्यक्ति यह चाह रखता था कि वह ऋणमुक्त होकर संसार से विदा ले — माता-पिता, गुरु, समाज, और अतिथियों के ऋण से भी। अतिथि को देखकर लोग कहते थे, “यह तो मेरी तपस्या का फल है। मैं भी कभी किसी के घर अतिथि बना होऊंगा। आज ऋण चुकता कर रहा हूं।”
श्रीराम: कृतज्ञता की प्रतिमूर्ति
भगवान श्रीराम कृतज्ञता की प्रतिमूर्ति हैं। चाहे वो केवट हो, शबरी, या हनुमान — जिसने भी थोड़ी सी सेवा की, राम ने उसका हृदय से सम्मान किया।
परमात्मा का दिव्य स्वरूप
वेदव्यास जी की स्तुति में कहा गया है कि परमात्मा अव्यय हैं — उनका क्षरण नहीं होता। वे चिन्मय, आनंदस्वरूप और प्रकाशस्वरूप हैं। ब्रह्मांड के सारे सूर्य मिलकर भी उनके प्रकाश के आगे फीके पड़ जाएं।
धर्म स्थापना के लिए अवतार
जब संसार पर भार बढ़ता है, जब पाप बढ़ते हैं — तब वही परमात्मा स्वयं अवतरित होते हैं। उन्होंने गीता में भी कहा है:
“परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे॥”
भगवान स्वेच्छा से नहीं, बल्कि जग की पुकार सुनकर आते हैं। यह 'सम-प्रार्थिता' ही उन्हें पृथ्वी पर लाने का निमित्त बनती है।
प्रभु का ब्रह्मत्व और स्वभाव
परमात्मा जब आते हैं, तो राक्षसों का नाश करते हैं। लेकिन वह केवल युद्ध तक सीमित नहीं रहते — वे फिर से ब्रह्मत्व में स्थित हो जाते हैं। यही उनकी दिव्यता है। जहां आम मनुष्य अपने बुरे स्वभाव में फंस जाता है, वहां प्रभु राक्षसों का वध करके भी पुनः अपनी ब्रह्म-वृत्ति में लौट आते हैं।
स्वभाव का अतिक्रमण कठिन होता है। लेकिन भगवान का स्वभाव ब्रह्म है — इसलिए वे उस ब्रह्मत्व से कभी विचलित नहीं होते।
और जानें भारत माता वेबसाइट पर
सुनें पूर्ण प्रवचन Bharat Mata YouTube चैनल पर
प्रवचन श्रेणी के और भी आध्यात्मिक विचार पढ़ें