राम क्या हैं? | Swami Satyamitranand Ji Maharaj | Adhyatm Ramayana | Pravachan | Bharat Mata
अयोध्या में भगवान की वापसी और ब्रह्मतत्त्व का प्रकटन
जब भगवान श्रीराम पुष्पक विमान द्वारा अयोध्या लौटे, तब यह केवल एक लौकिक यात्रा नहीं थी—यह उनके दिव्य चरित्र के अनेक पहलुओं का उद्घाटन था। अयोध्या-गमन के उपरांत राज्याभिषेक, रामराज्य की स्थापना, और उनके समस्त दिव्य कार्यकलाप मेरे ही आश्रय से या उनकी ही आज्ञा से संपन्न हुए—ऐसा कथन जानकी जी बारंबार करती हैं। क्योंकि राम स्वयं सच्चिदानंद स्वरूप परब्रह्म हैं।
जानकी जी का यह आग्रह बारंबार इसलिए है कि हनुमान जी जैसे परम भक्त यह न समझ लें कि श्रीराम किसी कार्य के कर्ता हैं। क्योंकि यदि वे स्वयं कर्ता हो जाते, तो ‘रामः हि परम ब्रह्म’ का प्रतिपादन कैसे सत्य रहेगा? ब्रह्म तो निराकार, अकर्ता, निरुपाधि, परिणामहीन होता है। वह न कुछ करता है, न किसी फल की इच्छा करता है। अतः जानकी जी स्पष्ट शब्दों में कहती हैं—
"रामो न गच्छति, न तिष्ठति, न शोकते, न आकांक्षते, न करोति किंचित्।"
अर्थात् राम न कहीं जाते हैं, न कहीं स्थिर होते हैं, न शोक करते हैं, न किसी वस्तु की कामना करते हैं, न ही कोई कर्म करते हैं।
यदि आकांक्षा हो तो वह जीवत्व की ओर संकेत करती है—क्योंकि आकांक्षा का उद्भव तो केवल उस मनुष्य में होता है, जो स्वयं अधूरा है, जिसमें पूर्व जन्मों के संस्कार और वासनाएँ शेष हैं। सामान्य व्यक्ति हो या राजा, सभी किसी न किसी रूप में आकांक्षा से बंधे रहते हैं। परंतु राम कैसे आकांक्षी हो सकते हैं? जानकी जी इस संभावनाओं का निषेध करती हैं।
जहां न ग्रहण है, न परित्याग—ऐसे राम तो आनंदमूर्ति हैं। जानकी जी उन्हें 'आनंद मूर्ति, अचला, परिणामहीना' कहती हैं। ‘मूर्ति’ शब्द का प्रयोग यहाँ अत्यंत सूक्ष्म अर्थ लिए हुए है। जैसे मूर्ति की प्रतिष्ठा एक बार वेदमंत्रों से कर दी जाए, तो वह चलायमान नहीं होती—वैसे ही राम अचल हैं। वे कहीं नहीं जाते, परंतु फिर भी उनकी अनुभूति हर स्थल पर होती है।
जैसे तिरुपति में वेंकटेश्वर भगवान की अचल प्रतिमा के दर्शन हेतु लाखों लोग हर वर्ष जाते हैं—वैसे ही भगवान अचल होते हुए भी भक्त की श्रद्धा उन्हें प्रकट कर देती है। श्रद्धा ही वह शक्ति है जो उस अचल मूर्ति से आनंद, मनोरथ, और साक्षात्कार को खींच लाती है। आनंदमूर्ति हैं वे—और यदि आप खारे पानी के स्रोत से जल भरेंगे तो वह खारा होगा, गंगाजल लाएंगे तो अमृत तुल्य होगा। उसी प्रकार, जो आनंदमूर्ति परमात्मा है—उसमें केवल आनंद ही प्रकट होगा, और कुछ नहीं।
जो वस्तुएँ इस संसार में हैं—वे परिणामशील हैं। जो बना है—वह नष्ट होगा, जो प्रारंभ हुआ है—वह समाप्त होगा। लेकिन आनंदमूर्ति भगवान नित्य हैं। उनमें परिणाम नहीं है। आनंद में घट-बढ़ तभी संभव है जब उसमें परिवर्तन हो। पर जहां आनंद स्थायी हो, वही सच्चा ब्रह्म है।
यही कारण है कि वे 'माया गुणाननुगतो अपि' होते हुए भी—माया के द्वारा संसार की रचना करते हैं, ऐसा ‘विभाति’ होता है। यह विभाति है—सत्य नहीं। चंद्रमा का जल में प्रतिबिंब बालक को सच प्रतीत होता है, पर वह छाया मात्र है। मां बच्चे को जल की परात में चंद्रमा का प्रतिबिंब दिखा देती है, और बालक हर्षित हो जाता है—परंतु वह चंद्रमा नहीं, केवल प्रतिबिंब है। उसी प्रकार संसार में जितने भी सुख प्रतीत होते हैं—वे ‘विभाति’ हैं, 'सुखास' हैं, पर 'सत्यसुख' नहीं हैं।
जानकी जी यह सब कह रही थीं—और जब वेदांत का तत्व वहाँ प्रकट हुआ, तब स्वयं भगवान श्रीराम ने कहा: "अब मैं कहता हूँ।"
"ततो रामः स्वयं प्राह हनूमन्तं उपस्थितम्।"
अर्थात् जब जानकी जी पूर्ण ब्रह्म तत्व को उद्घाटित कर चुकीं, तब श्रीराम ने स्वयं आगे बढ़कर हनुमान जी को तत्व ज्ञान प्रदान किया, ताकि हनुमान जी यह न अनुभव करें कि मेरे आराध्य ने कुछ नहीं कहा—सारा तत्व केवल जानकी जी के माध्यम से ही व्यक्त हुआ।
श्रीराम ने कहा:
"श-तत्त्वं प्रवक्ष्यामि आत्मनः परमात्मनः।"
मैं अब आत्मा और परमात्मा के संबंध का तत्व कहता हूँ। हमारी सनातन संस्कृति में ‘तत्त्व’ और ‘तत्त्वज्ञ’ का बड़ा महत्त्व है। ज्ञानी पुरुष व्यक्ति-दर्शी नहीं, तत्त्व-दर्शी होते हैं। व्यक्ति बदल सकता है, पर तत्त्व अपरिवर्तनीय है।
श्रीराम ने विस्तार से तत्त्व की व्याख्या की:
"आकाशस्य यथा भेदा त्रिविधा दृश्यते प्रभो।"
आकाश तीन प्रकार का दिखाई देता है—
- घटाकाश (घड़े के भीतर सीमित आकाश),
- महाकाश (जो सर्वत्र व्याप्त है),
- प्रतिबिंब आकाश (जो जल आदि में परिलक्षित होता है)।
जैसे घट टूट जाए तो घटाकाश कहीं नहीं जाता—वह महाकाश में लीन हो जाता है। वैसे ही जीव का आत्मतत्त्व ब्रह्म में लीन होता है, अंतर नहीं रहता।
कबीरदास जी ने इसी सत्य को अपनी उलटबांसी में कहा:
"पानी बिच मीन पियासी, मोहें सुन सुन आवे हाँसी।"
और
"घट में पानी, पानी में घट है, अंतर बाहर पानी।
फूटा घट जल जल ही समाना, यही तत्त्व कहो ज्ञानी।"
अर्थात् जल और घट का भेद केवल उपाधि है—वास्तव में जल ही जल है, अंतर-बाहर वही तत्त्व है। जब घट (उपाधि) नष्ट होती है, तो भीतर-बाहर की भिन्नता मिट जाती है।
जानकी जी के माध्यम से जो ब्रह्मतत्त्व श्रीराम के रूप में प्रकट हुआ, वही अध्यात्म रामायण का मूल है—जहां राम केवल अयोध्या के राजा नहीं, बल्कि आनंदमूर्ति, अचला, परिणामहीन, माया के अधिष्ठाता परब्रह्म हैं।
और यही संदेश समस्त जीवों के लिए है—कि वे विभाति रूप सुखों से विमुख होकर उस नित्य, अचल, आनंदस्वरूप ब्रह्म की ओर प्रस्थान करें।