श्रीमद भगवत गीता: जीवन का शास्त्र | Swami Satyamitranand ji Maharaj | Shrimad Bhagavad Geeta Katha
स्वामी सत्यामित्रानंद गिरि जी महाराज ने भारतीय जीवन के अद्भुत दर्शन को गीता के माध्यम से स्पष्ट किया है।
गीता के गहरे अर्थ और योग का महत्व
श्रीमद भगवद गीता के गहरे अर्थ को सरलता से समझाते हुए कहते हैं कि योग का उद्देश्य सिर्फ शारीरिक साधना तक सीमित नहीं है, बल्कि यह एक सम्पूर्ण जीवनशैली है जो मानसिक, शारीरिक और आत्मिक संतुलन का मार्ग प्रशस्त करती है।
गीता का उद्धरण: जीवन में संतुलन का संदेश
स्वामी जी ने गीता के इस अंश को उद्धृत किया है:
"युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु।
युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा॥"
यह श्लोक जीवन में संतुलन की आवश्यकता को प्रतिपादित करता है। इसका अर्थ है कि जो व्यक्ति अपनी दिनचर्या में संयमित आहार, उचित विहार, परिश्रम, शुद्ध चेष्टाएँ और समुचित निद्रा का पालन करता है, वह व्यक्ति योगी होता है और उसका योग उसके समस्त दुःखों को नष्ट कर देता है।
स्वामी जी का विचार: कर्म और संतुलन का महत्व
स्वामी जी का मानना है कि प्रत्येक व्यक्ति के कर्म उसके स्वयं के होते हैं और हर किसी की परिस्थितियाँ अलग-अलग होती हैं। इसलिये कर्मों में युक्तता का निर्धारण व्यक्ति को स्वयं करना चाहिए, क्योंकि जीवन के प्रत्येक पहलु में संतुलन बनाए रखना जरूरी है। यह संतुलन शारीरिक आहार, मानसिक आहार, कार्यों में निष्कलंकता, शांति और आत्मविश्वास के द्वारा ही स्थापित किया जा सकता है।
श्रीमद भगवत गीता: जीवन का सर्वोत्तम मार्गदर्शक
स्वामी जी के अनुसार, जीवन में संतुलन का सबसे उत्तम और प्रभावी मार्ग श्रीमद भगवत गीता है। गीता का संदेश न केवल आध्यात्मिक उन्नति का मार्ग दिखाता है, बल्कि यह जीवन को व्यवस्थित और उद्देश्यपूर्ण बनाने का सूत्र भी प्रदान करता है। गीता जीवन का शास्त्र है, जो व्यक्ति को आत्म-ज्ञान, कार्य के प्रति सही दृष्टिकोण और आत्म-विश्वास प्रदान करता है।
गीता के मार्गदर्शन का प्रभाव
स्वामी जी कहते हैं कि गीता को जीवन में उतारने से न केवल व्यक्ति का शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य बेहतर होता है, बल्कि उसकी आत्मा भी शुद्ध होती है। यही कारण है कि गीता को जीवन का एक अद्वितीय मार्गदर्शक और शास्त्र माना गया है, जो हर युग और हर परिस्थिति में प्रासंगिक है।
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