पुत्र कुपुत्र हो सकता है पर माता कुमाता नहीं | Swami Satyamitranand Ji Maharaj | कुंभ प्रवचन
भारत माता चैनल प्रस्तुत करता है स्वामी सत्यमित्रानंद गिरी जी महाराज की वाणी से प्रस्फुटित "कुम्भ की स्मृतियाँ"।
स्वामी सत्यमित्रानंद गिरी जी महाराज की वाणी से गूंजता है एक सशक्त संदेश, जो न केवल हमारी संस्कृति को समझने का एक गहरा दृष्टिकोण प्रदान करता है, बल्कि यह हमें हमारे कर्तव्यों और जिम्मेदारियों का भी अहसास कराता है। स्वामी जी का कहना है कि समाज का प्रत्येक व्यक्ति यह महसूस करे कि गंगा मेरी है, यह धर्म मेरा है। इस भावना से ही हमारी आस्थाएँ, हमारी जिम्मेदारियाँ और हमारे कार्य की दिशा स्पष्ट होती है।
गंगा की शुद्धता बनाए रखने का सामूहिक प्रयास
स्वामी जी के अनुसार, गंगा मैया का पवित्र जल सभी के लिए समान है, और इसमें किसी प्रकार का भेदभाव नहीं किया जाता। चाहे वह कोई भी हो, गंगा मैया ने सभी को समान रूप से अपनाया है। यही कारण है कि गंगा के साथ हमारा संबंध सिर्फ श्रद्धा और आस्था का नहीं, बल्कि एक गहरी जिम्मेदारी का भी है। गंगा मैया को शुद्ध और पवित्र बनाए रखने के लिए हमें सामूहिक रूप से जागरूक होना होगा।
भारतीय संस्कृति: वितरण की संस्कृति
स्वामी जी का यह भी मानना है कि भारतीय संस्कृति वितरण करने की संस्कृति है। हमारे धर्म और संस्कृति का मूल उद्देश्य सिर्फ खुद को समृद्ध करना नहीं है, बल्कि अपने आस-पास के समाज को भी समृद्ध करना है। यही कारण है कि इस संस्कृति को सुरक्षित रखना हम सभी की जिम्मेदारी है। स्वामी जी कहते हैं, "जब तक हम यह महसूस नहीं करेंगे कि गंगा, धर्म और संस्कृति हमारा साझा उत्तरदायित्व है, तब तक हम इसे संरक्षित नहीं कर सकते।
कुम्भ मेला: जागरूकता का महापर्व
स्वामी जी ने कुम्भ मेला जैसे धार्मिक आयोजन का महत्व भी बड़े विस्तार से बताया। यह आयोजन केवल एक धार्मिक उत्सव नहीं है, बल्कि यह एक जागरूकता का महापर्व है, जहाँ हम सभी अपने आत्म-संस्कार और धर्म के प्रति अपनी आस्था को फिर से जीवित करते हैं। स्वामी जी का कहना है कि कुम्भ की स्मृतियाँ हमें यह सिखाती हैं कि केवल बाहरी शुद्धता ही नहीं, बल्कि आंतरिक शुद्धता भी उतनी ही महत्वपूर्ण है।
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