विश्व की रचना कैसे हुई? | अध्यात्म रामायण | Swami Satyamitranand Ji Maharaj | Pravachan

जानकी जी का स्मरण और उसका आध्यात्मिक महत्व

भारत माता चैनल की इस प्रस्तुति में स्वामी सत्यमित्रानंद गिरी जी महाराज आध्यात्म रामायण का सार प्रस्तुत करते हुए कहते हैं कि मैं उस जानकी का स्मरण करता हूं जिनके स्मरण मात्र से पापों का नाश होता है और ब्रह्मत्व की प्राप्ति होती है। जानकी जी धरती से प्रकट हुईं जब राजा जनक हल चला रहे थे, इसीलिए उन्हें जानकी कहा गया। वेदव्यास जी कहते हैं कि मैं जानकी का भजन इसलिए करता हूं क्योंकि जानकी ही वह शक्ति हैं जिनके अंश से यह संपूर्ण पृथ्वी प्रकट हुई है।

जानकी स्मरण से परमात्मा की कृपा

यदि हम जानकी का स्मरण करें तो परमात्मा का ध्यान भी हमारे ऊपर अवश्य जाएगा, और जिस प्रकार जानकी के प्रति भगवान की करुणा और स्नेह है, उसी प्रकार उनका वात्सल्य धरती से उत्पन्न हम सब जीवों पर भी बहता रहेगा।

सृष्टि की उत्पत्ति – "एकोहं बहुस्याम"

संसार की रचना, उसका स्थायित्व और अंत – इन तीनों के मूल कारण भी वही परमात्मा हैं। एक दिन वे अकेले थे, आनंद में स्थित, और तभी उनके भीतर एक विक्षोभ उठा – "एकोहं बहुस्याम" – मैं एक हूं, अनेक हो जाऊं। जब सृष्टि प्रकट हुई तो परमात्मा उसमें प्रविष्ट हुए, लेकिन साथ ही माया ने भी प्रवेश किया और तब से त्रिगुणात्मक माया के प्रभाव से संसार में क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार और पाप फैलने लगे।

भगवान का तर्क – माया में लिप्त नहीं, लीला का आश्रय

वेदव्यास जी कहते हैं कि जब इस सारे संसार की प्रेरणा का मूल आप ही हैं, तो जीव को दंड क्यों? भगवान कहते हैं – मेरा स्वरूप तो शुद्ध, बुद्ध और सच्चिदानंद है। जीव माया के प्रभाव में आकर कर्म करता है, इसलिए वही उसके बंधन का कारण है। मैं माया का आश्रय लेकर लीला करता हूं लेकिन माया मुझे बांध नहीं सकती।

दृष्टांत: रामकृष्ण परमहंस की कटहल की तुलना

स्वामी रामकृष्ण परमहंस ने एक दृष्टांत से समझाया – जैसे कटहल काटते समय यदि हाथों और चाकू पर तेल लगाया जाए तो उसका दूध नहीं चिपकता, वैसे ही परमात्मा जब माया के साथ लीला करते हैं तो अपनी ब्रह्मता रूपी तेल से अपने को आविष्ट रखते हैं। लेकिन हम जीव अहंकार और अज्ञान के कारण कटहल जैसे संसार को बिना तेल के काटने का प्रयास करते हैं और फिर उसका दूध हमें बांध देता है, यानी माया में लिप्त कर देता है।

सीतापति श्रीराम – सच्चिदानंद स्वरूप

इसलिए मैं उस सीतापति को, जो सच्चिदानंद स्वरूप हैं, निर्मल हैं, बोधमय हैं, और समस्त तत्वों को जानने वाले हैं – विदित तत्व – उन्हें मैं नमस्कार करता हूं। वे ही वह सत्ता हैं जो संसार के रहस्य को जानती है, लीला करती है लेकिन बंधती नहीं। गीता कहती है कि तत्व को जानने के लिए विनय, सेवा और प्रश्न आवश्यक हैं, और श्रीराम स्वयं वह तत्व हैं, जिन्हें जानने से समस्त ज्ञान सिद्ध हो जाता है। मैं उन्हें नमस्कार करता हूं।