Chandragupta Maurya History | Maurya Emperor Chandragupta Maurya | मौर्य साम्राज्य के संस्थापक

प्राचीन भारत के एक चक्रवर्ती सम्राट और योग्य शासक के रूप में सुप्रसिद्ध है , उन्होंने भारत के अधिकांश हिस्सों को अपने राज्य में मिला कर एक सुसंगठित राज्य की नींव रखी।  वह मौर्य वंश के यशस्वी संस्थापक थे।  उनका काल खंड एक विदेशी आक्रांता सिकंदर के आक्रमण के बाद से प्रारम्भ होता है।  आज हम चंद्रगुप्त मौर्य के जीवन से जुड़ी कुछ महान उपलब्धियों और उनकी संघर्ष गाथा की विवेचना करेंगे।  

चन्द्रगुप्त के जीवन और उपलब्धियों का वर्णन प्राचीन और ऐतिहासिक ग्रीक , हिन्दू ,बौद्ध और जैन ग्रंथो में किया गया है चंद्रगुप्त का जन्म लगभग 340 ईसा पूर्व में हुआ, और लगभग 295 ईसा पूर्व में उनकी मृत्यु हो गई, इतिहास के अनुसार , जब चन्द्रगुप्त मां के गर्भ में थे तभी उनके पिता का निधन हो गया था, जिसके बाद उनकी माँ अपने भाइयों की मदद से पाटलिपुत्र आ गईं । चन्द्रगुप्त की सुरक्षा के लिए चन्द्रगुप्त के मामा ने उन्हें गोद ले लिया,परन्तु उनके बड़े होते ही उनके मामा ने उन्हें एक चरवाहे को बेच दिया।  जिसने उन्हें मवेशी चराने के लिए नियुक्त किया।

एक दिन जब चंद्रगुप्त अपने साथियों के साथ राजा का खेल खेल रहे थे, तब शकटार ने उन्हें देखा।‘’शकटार आचार्य चाणक्य के मित्र थे’’  तभी शकटार ने चाणक्य को चंद्रगुप्त  के बारे में बताया और कहा मुझे उस बालक में अपार संभावनाएं  नजर आती हैं।  वह अन्य बालकों से बिल्कुल भिन्न, सुदृढ शरीर और विचारों वाला है और उसकी नेतृत्व शक्ति कमाल की है।  जब मैं बैठकर कर उसका खेल देख रहा था तभी अचानक वहां एक चीता आ धमका और उसने मुझ पर हमला करना चाहा।  अन्य बालक तो डर से इधर उधर भागने लगे, लेकिन चीते के मुझ तक पहुंचने से पहले ही उस बालक ने अपनी तलवार से  उसे धराशायी कर दिया। जब मैंने उससे पूछा की तुम इतने साहसी कैसे हो ? तो वह बोला की मैं राजा बना था, और राजा का काम होता हैं अपनी प्रजा की रक्षा करना इसी लिए मैं अकेले ही लड़ा और मुझे धनानंद से भी तो अकेले ही लड़ना हैं।  जब मैंने उससे इसका कारण पूछा तो वह बोला की उस क्रूर ने मेरी माता का अपमान करके उन्हें राजभवन से निकाल दिया था।

चंद्रगुप्त के बारे में सुनते ही शकटार और आचार्य चाणक्य ने उस बालक की खोज की तो पता चला , वह धनानंद की परमसुन्दरी दासी मुरा का पुत्र हैं, और किसी संदेह के कारण धनानंद ने मुरा को जंगल में रहने के लिए विवश कर दिया था।  जब आचार्य चाणक्य को यह बात पता चली तो उनके मन में चन्द्रगुप्त से मिलने की उत्सुकता बढ़ गयी।  अगले दिन शकटार और आचार्य चाणक्य ज्योतिषी का रूप बना कर जंगल में गए जहां आदिवासी लोग रहते थे। जब शकटार ने मुरा और चन्द्रगुप्त के बारे में आदिवासियों से पूछा तो वह उन्हें एक झोपड़ी में ले गए, जहां मुरा  बहुत ही दयनीय स्थिति में बैठी अपने किशोर बालक तो पत्तल में  भोजन खिला रही थी।  कुछ देर बाद जब शकटार  ने मुरा को अपने आने का कारण बताया तो मुरा ने कहा कि यह मेरा इकलौता पुत्र है जो इस  दुनिया में मेरा एकमात्र सहारा है। मुरा की बात सुनने के बाद चाणक्य ने कहा ‘’देवी’’आप महान हैं जो इस संकट और विपत्ति की घड़ी  में भी आप ने इसे वीरता और धीरज की शिक्षा दी। आज मगध के राजा के बढ़ते अत्याचारों  को रोकने के लिए हमें एक ऐसे ही धीर, वीर  और बुद्धिमान बालक  की तलाश है, जिसमे नेतृत्व क्षमता भी हो । मुरा ने लम्बी सांस ली और कहा आपको तो पता ही है धनानंद कितना क्रूर राजा है अगर उसे  पता चल गया तो वह हम सभी को मार देगा।  आचार्य ने मुरा को आश्वासन देते हुए कहा कि मेरे होते हुए  आपके बालक को कोई हाथ भी नहीं लगा सकता।  यह बात सुन कर मुरा ने चंद्रगुप्त की लम्बी आयु की मांग करते हुए उसे आचार्य चाणक्य के हाथों में सौंप दिया।  आचार्य चाणक्य का सानिध्य प्राप्त होने के बाद चंद्रगुप्त का जीवन बदल गया।  चन्द्रगुप्त ने आचार्य चाणक्य से शिक्षा प्राप्त की और अपने नए जीवन का आरम्भ किया।   

चन्द्रगुप्त ने सर्वप्रथम अपनी स्थिति पंजाब में सुदृढ़ की। उसका यवनों विरुद्ध  युद्ध सम्भवतः सिकंदर की मृत्यु के कुछ ही समय बाद आरम्भ हो गया था। जस्टिन के अनुसार सिकंदर की मृत्यु के उपरान्त भारत ने सान्द्रोकोत्तस के नेतृत्व में दासता के बंधन को तोड़ फेंका तथा यवन राज्यपालों का वध कर दिया ।  चन्द्रगुप्त ने यवनों के विरुद्ध अभियान लगभग 323 ईसा पूर्व  में आरम्भ किया , परन्तु उन्हें इस अभियान में पूर्ण सफलता 317 ईसा पूर्व  के बाद मिली , क्योंकि इसी वर्ष पश्चिम पंजाब के शासक क्षत्रप यूदेमस (Eudemus) ने अपनी सेनाओं सहित भारत को  छोड़ दिया था। इस सफलता से उन्हें पंजाब और सिन्ध के प्रान्त मिल गए।

चन्द्रगुप्त मौर्य का महत्वपूर्ण युद्ध धनानंद  के साथ उत्तराधिकार के लिए हुआ। सिकंदर के भारत अभियान के समय चन्द्रगुप्त ने उसे नन्दों के विरुद्ध युद्ध के लिये भड़काया था, किन्तु किशोर चन्द्रगुप्त के व्यवहार ने यवनविजेता को क्रुद्ध कर दिया। चन्द्रगुप्त ने आरम्भ में नन्दसाम्राज्य के मध्य भाग पर आक्रमण किया, किन्तु उन्हें शीघ्र ही अपनी त्रुटि का पता चल गया और नए आक्रमण सीमान्त प्रदेशों से आरम्भ हुए। अंततः उन्होंने पाटलिपुत्र को घेर कर धनानंद का वध कर दिया  और इसके उपरांत उन्होंने दक्षिण में अपने साम्राज्य का विस्तार किया।  

चन्द्रगुप्त का अन्तिम युद्ध सिकंदर के पूर्वसेनापति तथा उनके समकालीन सीरिया के ग्रीक सम्राट सेल्यूकस के साथ हुआ। ग्रीक इतिहासकार जस्टिन के उल्लेखों से प्रमाणित होता है कि सिकंदर की मृत्यु के बाद सेल्यूकस को उसके स्वामी के सुविस्तृत साम्राज्य का पूर्वी भाग उत्तराधिकार में प्राप्त हुआ। सेल्यूकस, सिकंदर के भारत विजय के अधूरे लक्ष्य को पूर्ण करने के उद्देश्य से आगे बढ़ा था , किन्तु भारत की राजनीतिक स्थिति अब तक परिवर्तित हो चुकी थी। लगभग सारा क्षेत्र एक शक्तिशाली शासक के नेतृत्व में था। सेल्यूकस 305 ई.पू. के लगभग सिन्धु के किनारे आ पहुंचा । जिसके बाद चन्द्रगुप्त की शक्ति के आगे सेल्यूकस  को झुकना पड़ा। फलतः सेल्यूकस ने चन्द्रगुप्त को विवाह में एक यवनकुमारी तथा एरिया (हिरात), एराकोसिया (कंदहार), परोपनिसदाइ (काबुल) और गेद्रोसिय (बलूचिस्तान) के प्रान्त देकर संधि कर ली। इसके  बदले चन्द्रगुप्त ने सेल्यूकस को 500 हाथी भेंट किए।  इस प्रकार स्थापित हुए मैत्री सम्बन्ध को स्थायित्व प्रदान करने की दृष्टि से सेल्यूकस ने  मेगस्थनीज नाम के अपने एक दूत को चन्द्रगुप्त के दरबार में भेजा। यह  इस बात का प्रमाण है कि चन्द्रगुप्त का प्रायः सम्पूर्ण राज्य काल युद्धों द्वारा साम्राज्य विस्तार करने में बीता।

आचार्य चाणक्य से शिक्षा पाकर चन्द्रगुप्त ने नंद वंश का नाश किया और मौर्य साम्राज्य की स्थापना की ,और वर्षो तक अपने राज्य को भली भाति संभाला।जिसके बाद उन्होंने यमन के शासक सेल्यूकस के खिलाफ युद्ध में विजय प्राप्त की।  उन्होंने  धनानंद की एकलौती बहन दुर्धरा व सेल्युकस की बेटी हेलेना से विवाह किया। अपने अंतिम दिनों में चंद्रगुप्त जैन-मुनि हो गए। चंद्रगुप्त अन्तिम मुकुट-धारी मुनि हुए और उनके बाद और कोई मुकुट-धारी (शासक) दिगंबर-मुनि नहीं हुए | अतः चंद्रगुप्त का जैन धर्म में भी महत्वपूर्ण स्थान है। बाद में चंद्रगुप्त स्वामी भद्रबाहु के साथ श्रवणबेलगोल चले गए। वहीं उन्होंने उपवास द्वारा शरीर त्याग किया। श्रवणबेलगोल में जिस पहाड़ी पर वे रहते थे, उसका नाम चन्द्रगिरी है और वहीं उनका बनवाया हुआ ‘चन्द्रगुप्तबस्ति’ नामक मन्दिर भी है। भारत समन्वय परिवार की ओर से महान सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य के आदर्शों को शत शत नमन।  हमारा प्रयास है कि उनके द्वारा स्थापित जीवन मूल्यों से भारत की भावी पीढ़ी प्रेरणा प्राप्त करें।  

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