History of Guru Gobind Singh Ji
17वीं शताब्दी का वो कालखंड जहां पूरे भारत पर अपना एकछत्र साम्राज्य स्थापित करने की महत्वाकांक्षा को साकार करने के लिए लगातार कुत्सित प्रयास कर रहे मुगल आक्रांत औरंगजेब को दक्षिण में तो मराठों से कड़ी टक्कर मिल रही थी लेकिन उत्तर भारत और कश्मीर में हिंदुओं के लिए अपने जनेऊ और तिलक की रक्षा कर पाना असंभव हो गया था। ऐसे में कुछ कश्मीरी पंडित सिखों के नौवें गुरु तेग बहादुर जी के पास पहुंचे और उनसे हिंदुओं की रक्षा करने की विनती की। गुरु तेग बहादुर ने भी हिंदुओं की रक्षा के लिए अपने प्राणों का बलिदान दे दिया और इसके बाद उदय हुआ गुरु गोबिन्द सिंह जी का।
गुरु गोबिन्द सिंह जी सिखों के दसवें गुरु होने के साथ साथ एक महान कवि, दार्शनिक, आध्यात्मिक गुरु और महान योद्धा थे। गुरु गोबिन्द सिंह जी का जन्म 22 दिसंबर 1666 को पटना में हुआ था। गुरु गोबिन्द सिंह जी सिखों के नौवें गुरु तेग बहादुर जी के पुत्र थे तथा उनकी माता का नाम गुजरी देवी था। जब गुरु तेग बहादुर जी ने औरंगजेब के पास जाने का निश्चय किया तब वे ये भी जानते थे कि वहाँ से उनका जीवित लौट पाना असंभव है इसीलिए उन्होंने जाने से पहले गुरु गोबिन्द सिंह जी को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त कर दिया था। यह एक ऐसा समय था जहां एक ओर लोग गुरु गोबिन्द सिंह जी की शिक्षाओं से प्रभावित होकर स्वेच्छा से सिख धर्म अपना रहे थे जबकि दूसरी ओर औरंगजेब तलवारों की नोक पर लोगों का इस्लाम में धर्म परिवर्तन करा रहा था। गुरु गोबिन्द सिंह जी के नेतृत्व में सिख धर्म का विस्तार और औरंगजेब के दमनकारी शासन के खिलाफ गुरु जी का खुला विरोध औरंगजेब की नींद उड़ाने के लिए पर्याप्त था। गुरु गोबिन्द सिंह जी जानते थे कि आने वाले समय में मुगलों से कोई बड़ा युद्ध हो सकता है इसलिए उन्होंने सन 1699 में बैसाखी के दिन धर्म की रक्षा के लिए खालसा पंथ की स्थापना की थी। गुरु जी ने सिखों से पाँच ककार धारण करने को भी कहा था।
इन पाँच ककारों में केश, कंघा, कड़ा, कछेरा और कृपाण शामिल है। “जो बोले सो निहाल, सत श्री अकाल” ये खालसा वाणी भी गुरु जी ने खालसा की स्थापना के समय ही दी थी। गुरु जी ने ही सिखों के नाम के आगे सिंह लगाने की परंपरा की शुरुआत की थी। खालसा पंथ के गठन के बाद गुरु गोबिन्द सिंह जी की बढ़ती शक्ति को रोकने के लिए औरंगजेब के आदेश पर मुगलों की एक संयुक्त सेना ने 1704 में आनंदपुर साहिब किले की घेराबंदी कर दी। गुरु गोबिन्द सिंह जी रात के अंधेरे में सभी को साथ लेकर आनंदपुर साहिब छोड़कर निकल गए लेकिन किले के बाहर खड़ी मुगल सेना उनके पीछे लग गई। मार्ग में पड़ने वाली सिरसा नदी को करने के दौरान ही गुरु गोबिन्द सिंह जी माता गुजरी और अपने दो छोटे साहिबजादों जोरावर सिंह और फतेह सिंह जी से भी बिछड़ गए। सिरसा नदी पार करके गुरु जी जब चमकौर पहुंचे तो उनके साथ उनके दो बड़े साहिबजादों अजीत सिंह और जुझार सिंह समेत मात्र 40 सिख ही बचे थे। अगले ही दिन वजीर खान के नेतृत्व वाली दस लाख की मुगल सेना चमकौर पहुँच गई और गुरु गोबिन्द सिंह जी से आत्मसमर्पण करने को कहा परंतु गुरु गोबिन्द सिंह जी ने मुगल सेना भयंकर आक्रमण कर दिया जो मुगल सेना के लिए अप्रत्याशित था। इस युद्ध के प्रारंभ होने से पहले गुरु जी ने 40 सिख योद्धाओं को विजय मंत्र देते हुए कहा था- सवा लाख से एक लड़ाऊँ, चिड़ियन ते मैं बाज तुड़ाऊँ, तब गोबिन्द सिंह नाम कहाऊँ। उनके इसी विजय मंत्र ने उन 40 सिख योद्धाओं में अपार साहस का संचार किया था और इसके बाद सिख योद्धाओं ने दस लाख की मुगल सेना में भयंकर विध्वंस मचाना शुरू कर दिया। गुरु जी के दोनों साहिबजादों अजीत सिंह और जुझार सिंह समेत अन्य योद्धाओं ने मिलकर अत्यंत वीरता के साथ युद्ध किया और लाखों मुगल योद्धाओं को मौत के घाट उतारकर स्वयं भी वीरगति को प्राप्त हो गए। यह युद्ध वजीर खान और औरंगजेब दोनों के लिए एक करारी हार साबित हुआ क्योंकि गुरु गोबिन्द सिंह जी उनकी पकड़ से अब भी दूर थे। युद्ध के बाद वजीर खान ने गुरु साहब के अन्य दो साहिबजादों को पकड़ लिया और उनसे धर्मपरिवर्तन कराने को कहा परंतु गुरु जी के दोनों पुत्रों ने धर्म की रक्षा के लिए अपने प्राणों की चिंता किए बिना धर्मपरिवर्तन करवाने से मना कर दिया, वजीर खान और अन्य मुगलों ने उन्हें बहला फुसलाकर और डरा धमकाकर भी इस्लाम कुबूल करवाने का प्रयास किया लेकिन दोनों साहिबजादे अपने धर्म के साथ खड़े रहे। जब किसी भी प्रकार से बात नहीं बनी तब वजीर खान के आदेश पर 9 वर्ष के साहिबजादे जोरावर सिंह और 7 वर्ष के साहिबजादे फतेह सिंह को दीवार में जिंदा चुनवा दिया गया और इस तरह गुरु जी के चारों साहिबजादे धर्म की रक्षा करते हुए शहीद हो गए। अपने जीवन के अंतिम क्षण गिन रहे औरंगजेब को गुरु गोबिन्द सिंह जी ने फारसी में लिखा एक पत्र भिजवाया था जिसे जफरनामा भी कहा जाता है। इस पत्र को पढ़ने के बाद औरंगजेब ने गुरु गोबिन्द सिंह जी से मिलने की इच्छा भी जताई थी लेकिन उसकी यह इच्छा पूर्ण होने से पहले ही सन 1707 में उसकी मृत्यु हो गई। इधर वजीर खान ने गुरु गोबिन्द सिंह जी की हत्या करने के लिए दो पठानों को भेजा। एक दिन जब गुरु जी विश्राम कर रहे थे तब उन दोनों पठानों ने गुरुजी के सीने में खंजर से घातक प्रहार किया जिससे गुरुजी सदा के लिए दिव्य ज्योति में लीन हो गए।
गुरु गोबिन्द सिंह जी ने सिख धर्म में गुरु परंपरा को समाप्त करते हुए गुरु ग्रंथ साहिब को ही अपना अंतिम गुरु मानने का आदेश दिया था।
भारत समन्वय परिवार की ओर से सिख धर्म के अंतिम गुरु, अदम्य साहस और वीरता के प्रतीक संत सिपाही और खालसा पंथ के संस्थापक गुरु गोबिन्द देव जी के श्रीचरणों में शत शत नमन। उनके द्वारा दिखाया गया मार्ग युग युगांतर तक लोगों के लिए प्रेरणा बनकर पथ आलोकित करता रहेगा।