Kittur Chennamma: कहानी कर्नाटक की 'रानी लक्ष्मीबाई' की, जिनसे अंग्रेज भी खौफ खाते थे।

पन्द्रह वर्ष की एक किशोर बालिका वन में शिकार  करने निकलती है दूर झाड़ियों में उसे  एक बाघ दिखाई देता है फिर क्या उसने कमान से तीर निकाला धनुष की प्रत्यंचा खींची और बाघ को एक क्षण में चित्त कर दिया,  उसी क्षण झाड़ियों के पीछे चमचमाता भाला लिए एक घुड़सवार निकलता है , बाघ की तरफ इशारा करके कहता है कि ,ये  तीर मेरा है, परन्तु बालिका ने अपना अधिकार जताया और  कहा, बाघ की मृत्यु उसके तीर से हुयी है, दोनों में काफी समय तक बहस चली, परन्तु वह बालिका पीछे हटने को तैयार नहीं हुई.
ये बालिका कोई और  नहीं  रानी चेनम्मा थीं जिन्होंने अपने समक्ष खड़े कित्तूर के राजा मल्लसर्ज देसाई को‌ अपनी बहादुरी और दृढ़ता से आश्चर्य कर दिया था।
भारतीय इतिहास की विलक्षण परम्परा  में  हमारी पुण्यभुमि पर महान मातृशक्ति का प्रतिनिधित्व करते हुए श्रेष्ठ वीरांगनाओं ने जन्म लिया जिन्होंने अपने अदम्य  साहस,  तप, त्याग व राष्ट्र प्रेम की कसौटी पर अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया। ऐसी ही थीं कर्नाटक राज्य के कित्तूर प्रदेश की रानी चेनम्मा , जिन्हें भारतीय इतिहास में अंग्रेजों  के विरुद्ध युद्ध का प्रारंभ करने वाली पहली  महिला शासक के रूप में स्मरण किया जाता है.
रानी चेन्नम्मा का जन्म 23 अक्टूबर 1778 को  कर्नाटक की छोटी सी रियासत काकतिया राजवंश के राजा धुलप्पा और रानी पद्मावती के यहां हुआ , उनकी  शिक्षा-दीक्षा भी राजकुल के अनुरूप ही हुई। चेन्नम्मा को संस्कृत, कन्नड़, मराठी और उर्दू आदि भाषाओं के साथ-साथ घुड़सवारी, अस्त्र-शस्त्र चलाने और युद्ध-कला की भी शिक्षा प्रदान की गई।
कम आयु में ही उनका विवाह कित्तूर के राजा मल्लसर्ज के साथ कर दिया जिसके बाद वो कित्तूर की रानी बन गईं. साल 1824 में अचानक राजा मल्लसर्ज के पश्चात्  उनके एकमात्र पुत्र की भी मृत्यू हो जाती है जिसके पश्चात्  रानी शिवलिंगप्पा नाम के एक दूसरे बच्चे को गोद लेकर उसे अपनी गद्दी का उत्तराधिकारी घोषित कर देती हैं, परन्तु ब्रिटिश  ईस्ट इंडिया कंपनी  ने अपनी 'हड़प नीति' के तहत रानी के इस उत्तराधिकारी को स्वीकार नहीं किया और शिवलिंगप्पा को राज्य से बाहर भेजने का आदेश दे दिया.
जिसके पश्चात् रानी बॉम्बे प्रेसिडेंसी के लेफ्टिनेंट गवर्नर लॉर्ड एलफिंस्टन को एक पत्र भेजती हैं और कित्तुरु के मामले में हड़प नीति नहीं लागू करने का आग्रह करती हैं।  परन्तु अंग्रेज कहां मानने वाले थे। उनकी दृष्टि तो कित्तूर के खजाने पर थी ।  अंग्रेजों ने अपने 20 सहस्त्र सिहापियों  के साथ कित्तुरु पर आक्रमण कर दिया। 
रानी ने भी युद्ध- भेरी बजा दी, क्योंकि अब पीछे हटने का समय नहीं था  ,युद्ध शुरू हुआ और रानी के लेफ्टिनेंट अमातुर बालप्पा ने अंग्रेजों के पैर उखाड़ दिए। सार्जेंट जॉन ठाकरे मारा गया। दो ब्रिटिश अफसरों को बंधक बना लिया गया ,लेकिन चैप्लिन ने युद्ध जारी रखा, टुकड़ियों पर टुकड़ियां भेजता रहा.
अंत में  रानी अंग्रेजों के सामने कमजोर पड़ गईं और उन्हें बैलहोंगल किले में बंदी बना लिया गया,  फिर भी  उन्होने भारतीय नारी एवं रानी दोनों की ही गरिमा का परिचय दिया और अंग्रेजो की अधीनता स्वीकार करने से मना कर दिया।
रानी ने कहा  " जब तक मेरी नसों में एक भी बूंद शेष है तब तक  कित्तूर को कोई नहीं ले सकता ।"
रानी के विश्वस्त सेनापति  रायन्ना चाहते थे कि शिवलिंगप्पा किट्टूर का राजा बने।इस कारण से रानी के बंदी बनने के पश्चात् भी उन्होंने गुरिल्ला युद्ध समाप्त नहीं किया। परन्तु अंग्रेजों ने शिवलिंगप्पा को भी  कैद कर लिया।
भले ही रानी  चेन्नम्मा अंतिम युद्ध में पराजित गईं हों  लेकिन उनकी वीरता  इतिहास के पन्नों में अजर अमर है जबकि उस समय राज्य की सत्ता का संचालन सिर्फ पुरुषों द्वारा ही किया जाता था। राज्य की गद्दी पर पिता के बाद पुत्र का ही अधिकार होता था। जीवन से जुड़े किसी भी क्षेत्र में स्त्रियों की कोई भागीदारी नहीं थी। उस दौर में भी रानी चेन्नम्मा  ने दरबार में बैठकर राजसत्ता का संचालन किया और अंग्रेज़ों से लोहा लिया। ब्रिटिश साम्राज्य पर उनकी पहली विजय  पर आज भी कर्नाटक के लोग "कित्तूर उत्सव" के रूप में मनाकर रानी चेनम्मा के शौर्य को याद करते हैं ।
 ऐसी वीर, सशस्त्र महिला को भारत समन्वय परिवार शत शत नमन करता है।