पृथ्वीराज चौहान : भारत के अंतिम हिंदू सम्राट की कहानी
वह चलाता शब्दभेदी बाण था
अखंड शक्ति का वह प्रमाण था
जिसे कोई रोक न पाए वो ऐसा अग्निबाण था
इस धरा का वीर पुत्र वह पृथ्वीराज चौहान था.
भारत के गौरवशाली इतिहास के पृष्ठों पर स्वर्णिम अक्षरों में वीरों की शौर्य गाथाएं, साहस और पराक्रम अंकित है. ऐसे ही एक साहसिक योद्धा और भारत को विदेशी आक्रान्ताओं के अत्याचार से बचाने वाले अमर सेनानी का नाम है- पृथ्वीराज चौहान.
पृथ्वीराज चौहान का जन्म और उनका शौर्य
पृथ्वीराज चौहान का जन्म सन ११४९ में क्षत्रिय शासक महाराज सोमेश्वर और कर्पूरी देवी के घर में हुआ था. शौर्य और साहस तो उनके लिए ईश्वर प्रदत्त गुण थे, उनकी वीरता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि जब तराइन के युद्ध में मो. गोरी द्वारा उन्हें बंधक बना लिया गया था और उनसे आंखों की रोशनी भी छीन ली थी तब भी उन्होंने गोरी के दरबार में अपनी शब्दभेदी विद्या से उसे मार गिराया था. पृथ्वीराज चौहान के मित्र एवं कवि चंदबरदाई ने अपनी काव्य रचना “पृथ्वीराज रासो” में यह उल्लेख किया है. बाद में पृथ्वीराज के सहयोग से उन्होंने पिथौरगढ़ किले का निर्माण कराया था जो वर्तमान में दिल्ली में पुराने किले के नाम से प्रसिद्द है.
पृथ्वीराज चौहान का उत्तराधिकार और दिल्ली की सत्ता
पृथ्वीराज चौहान जब केवल ११ साल के थे तभी उनके पिता सोमेश्वर की एक युद्ध में मृत्यु हो गई, जिसके बाद वह अजमेर राज्य के उत्तराधिकारी बने और एक आदर्श शासक की ख्याति प्राप्त की. उनकी मां कर्पूरी देवी अपने पिता अनंगपाल की इकलौती बेटी थीं इसलिए उनके पिता ने अपने दामाद और अजमेर के शासक सोमेश्वर चौहान से पृथ्वीराज की प्रतिभा का आकलन करते हुए अपने साम्राज्य का उत्तराधिकारी बनाने की इच्छा प्रकट की जिसके तहत साल ११६६ में उनके नाना अनंगपाल की मौत के बाद पृथ्वीराज चौहान दिल्ली के राज सिंघासन पर बैठे और कुशलतापूर्वक उन्होंने दिल्ली की भी सत्ता संभाली. एक आदर्श शासक के दायित्वों का निर्वहन करते हुए उन्होंने साम्राज्य को शक्तिशाली बनाने के काम किये. साम्राज्य विस्तार के भी उनके द्वारा कई अभियान चलाये गए. शीघ्र ही वह एक वीर योद्धा एवं लोकप्रिय शासक के रूप में अपनी पहचान बनाने में सफल हुए.
संयोगिता से प्रेम और स्वयंवर की कहानी
पृथ्वीराज के अद्भुत साहस और वीरता की ख्याति चारों दिशाओं में फ़ैल रही थी, वहीँ कनौज के राजा जयचंद की बेटी संयोगिता ने उनकी बहादुरी और आकर्षण के किस्से सुने तो उनके ह्रदय में पृथ्वीराज के लिए प्रेम भावना उत्पन्न हो गई और उहोने गुप्त रूप से पृथ्वीराज को अपनी भावनाओं से अवगत भी करा दिया. पृथ्वीराज भी राजकुमारी को बिना देखे ही उससे प्रेम करने लगे. इसी क्रम में जब राजा जयचंद को राजकुमारी की भावना का पता चला तो उन्होंने संयोगिता के विवाह के लिए स्वयंवर आयोजित करने का निर्णय लिया. इसी कालचक्र में राजा जयचंद ने समस्त भारत पर अपना शासन चलाने की इच्छा से अश्वमेघ यज्ञ का आयोजन किया.
पृथ्वीराज और जयचंद का संघर्ष
पृथ्वीराज नहीं चाहते थे की जयचंद जैसे क्रूर शासक का प्रभुत्व भारत पर हो इसलिए उन्होंने इसका घोर विरोध भी किया था. इस घटना से जयचंद के मन में दुश्मनी और घृणा का भाव पृथ्वीराज के प्रति और अधिक बढ़ गया और इसी के परिणाम स्वरुप संयोगिता के स्वयंवर के आयोजन में उन्होंने छोटे बड़े महान योद्धाओं और राजाओं को आमंत्रित किया परन्तु पृथ्वीराज का अपमान करने के लिए उन्हें आमंत्रित नहीं किया और द्वारपाल के खड़े होने के स्थान पर उनकी मूर्ती लगा दी. पृथ्वीराज जयचंद के इस भाव को समझ गए और उन्होंने संयोगिता को पाने के लिए एक गुप्त योजना बनाई. स्वयंवर के दिन जैसे ही द्वार पर पृथ्वीराज की मूर्ती पर संयोगिता की नजर पड़ी उसने वरमाला उनके गले में डाल दी.
पृथ्वीराज चौहान अपनी गुप्त योजना के अनुसार द्वारपाल की प्रतिमा के पीछे खड़े थे उन्होंने जयचंद के सामने ही संयोगिता को उठाया और वहां उपस्थित राजाओं को युद्ध के लिए ललकारा और वे अपनी राजधानी दिल्ली लौट गए. यद्यपि जयचंद ने अपनी सेना उनके पीछे भेजी परन्तु पृथ्वीराज के सैनिकों के समक्ष उन्हें परास्त होना पड़ा.
ऐतिहासिक संकेतों के आधार पर इसके बाद ११८९ और ११९० में जयचंद और पृथ्वीराज के बीच घोर युद्ध हुआ था जिसमें दोनों ओरकी सेनाओं को भारी क्षति उठानी पड़ी थी. दूरदर्शी शासक पृथ्वीराज चौहान की सेना बहुत बड़ी और शक्तिशाली थी जिसमें करीब तीन लाख सैनिक ३०० हाथी और बड़ी संख्या में अश्व भी थे. अपनी पराजय से निराश होकर जयचंद ने एक विदेशी आक्रान्ता मोहम्मद गोरी की सहायता लेने का निश्चय किया और पृथ्वीराज के विरुद्ध षड्यंत्र रचने का प्रयास किया. इस षड्यंत्र से प्रेरित होकर मोहम्मद गोरी ने आक्रमण किया और इस युद्ध के तराइन के युद्ध के नाम से इतिहास में जाना जाता है.
तराइन युद्ध और मोहम्मद गोरी की पराजय
तराइन के इस युद्ध में पृथ्वीराज ने मोहम्मद गोरी को न केवल परास्त किया बल्कि उसे गंभीर रूप से घायल करने में भी सफलता प्राप्त की. इस भीषण युद्ध में परास्त और घायल होकर गोरी युद्ध छोड़कर भागने के लिए विवश हो गया. पृथ्वीराज ने पीठ दिखाकर भागते हुए गोरी पर वार न करने की क्षत्रिय धर्म की मर्यादा का पालन करते हुए उसे जीवित छोड़ दिया. पृथ्वीराज ने १६ बार मुहम्मद गोरी को परास्त किया और हर बार उसे जीवित छोड़ दिया. बार बार की हार और अपमान से गोरी का मन प्रतिशोध से भर गया और उसे अपने सत्रहवें आक्रमण में गद्दार राजा जयचंद का भी साथ मिल गया.
छल से पृथ्वीराज का विश्वास जीतने के लिए जयचंद ने अपना सैन्यबल पृथ्वीराज को सौंप दिया परन्तु उन सैनिकों ने पूर्व नियोजित षड्यंत्र वश युद्ध में पृथ्वीराज के सैनिकों का ही वध करना प्रारंभ कर दिया. इस युद्ध के परिणाम न केवल पृथ्वीराज के लिए बल्कि देश के लिए अत्यंत घातक सिद्ध हुए मुहम्मद गोरी ने पृथ्वीराज और चंदबरदाई को बंधक बना लिया.
अपने प्रतिशोध का बदला लेने के लिए गोरी ने पृथ्वीराज को अनेक शारीरिक यातनाएं दीं और गर्म सलाखों से उनकी आंखें भी निकाल दीं और उन्हें मृत्युदंड देने का निश्चय किया. चंदबरदाई ने गोरी को पृथ्वीराज की शब्दभेदी बाण चलाने की क्षमता से अवगत कराया और दरबार में एक प्रतियोगिता उत्सव आयोजित करवाने में सफलता प्राप्त की.
इस प्रतियोगिता में शब्दभेदी बाण चलाने में निपुण पृथ्वीराज ने चंदबरदाई के दोहे के माध्यम से दूरी और दिशा को समझते हुए बाण चलाया और भरे दरबार में गोरी को मार दिया. इसके बाद चंदबरदाई और पृथ्वीराज ने अपनी पूर्व योजना के अनुसार एक दूसरे पर प्रहार कर अपनी जीवन लीला समाप्त कर दी. चंदबरदाई की वह प्रसिद्द पंक्तियां हैं.
“चार बांस चौबीस गज, अंगुली अष्ट प्रमाण
ता ऊपर सुल्तान है, मत चूको चौहान”
पृथ्वीराज चौहान का बलिदान और उनकी अंतिम यात्रा
इस आदर्श शासक ने जीवन के अंतिम पल तक प्रजा और राज्य का रक्षण किया और विदेशी आक्रान्ता से पवन जन्मभूमि की रक्षा के लिए अपने प्राणों की आहुति दी. ऐसे महान योद्धा, आदर्श शासक और मातृभूमि की बलिवेदी पर प्राण न्योछावर करने वाले वीर सेनानी को भारत समन्वय परिवार की ओर से शत शत नमन.
हमारा संकल्प: युवाओं के लिए प्रेरणा
हमारा प्रयास और संकल्प है कि भारत भूमि के इन सपूतों के अमर बलिदान से भारत की युवा पीढ़ी प्रेरणा प्राप्त करे और उनकी स्मृति को अमरता प्राप्त हो.
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