Bhagwan Mahavir Life History
अहिंसा.. सत्य.. अपरिग्रह.. अस्तेय.. ब्रह्मचर्य.. ये मात्र शब्द नहीं.. मानवता को उपदेशित वो मूल मंत्र हैं.. जिनकी आधारशिला पर निर्मित जीवन.. पूर्णता को प्राप्त करता है। मानव जीवन की पूर्णता तभी संभव हो सकती है.. जब मानव.. स्वयं के अस्तित्व तथा जीवन के स्वरुप के ज्ञान को स्वयं में समाहित करता है। इन मूल मंत्रों द्वारा.. जिस ईश्वरीय शक्ति ने जीवन की सत्यता एवं स्वरुप का परिचय.. सम्पूर्ण विश्व को प्रदान किया.. उस शक्ति को भगवान महावीर की संज्ञा से उद्बोधित किया जाता है।
जैन धर्म के 24वें तीर्थंकर.. भगवान महावीर का जन्म.. हिंदू पंचांग के अनुसार.. चैत्र माह की तेरस अर्थात चैत्र शुक्ल की त्रयोदशी तिथि को.. वैशाली गणतंत्र के कुण्डग्राम में.. इक्ष्वाकु वंश के क्षत्रिय राजा सिद्धार्थ और रानी त्रिशला के पुत्र के रूप में हुआ था। जैन ग्रंथों के अनुसार.. 23वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ जी के निर्वाण प्राप्त करने के 188 वर्ष पश्चात.. इनका जन्म हुआ था।
भगवान महावीर के जन्मदिवस को.. जैन धर्म के अतिरिक्त.. अन्य धर्मों के भक्त भी.. महावीर जयंती के रूप में मनाते हैं। जैन धर्म में महावीर जयंती को महावीर जन्म कल्याणक भी कहा जाता है।
ऐतिहासिक ग्रंथों तथा मान्यताओं के अनुसार.. भगवान महावीर के जन्म के पश्चात.. राज्य में हुई उन्नति के कारण.. उनका नाम वर्धमान रखा गया था। जैन ग्रंथों में वर्धमान के अतिरिक्त.. भगवान महावीर के लिए वीर.. अतिवीर तथा सन्मति संज्ञाओं का भी उल्लेख है। अनुश्रुति है कि भगवान महावीर के जन्म के समय से पूर्व ही.. उनकी माता को.. जन्म लेने वाले पुत्र के विषय में अद्भुत स्वप्न आने आरम्भ हो गए थे.. कि भविष्य में उनका पुत्र महान सम्राट अथवा तीर्थंकर होगा।
विधि के विधान के अनुसार.. वर्धमान का सम्राट होना संभव ही नहीं.. एक प्रकार से निश्चित था.. क्यूंकि उन्हें राज्य तथा शासन स्वतः ही प्राप्त था.. किन्तु उन्होंने 30 वर्ष की आयु में अपना सर्वस्व त्याग दिया। संसार में सत्य की प्राप्ति के लिए.. उन्होंने राजसी सुख तथा धन-धान्य से परिपूर्ण वैभव को त्यागना श्रेयस्कर समझा। उन्होंने ध्यान तथा उपवास करते हुए.. एक सामान्य तपस्वी जीवन व्यतीत किया तथा एक स्थान से दूसरे स्थान तक यात्रा करते हुए.. जीवन के सत्य को प्राप्त करने का प्रयास किया। विभिन्न संस्कृतियों तथा पृष्ठभूमि के मनुष्यों से भेंट करने के पश्चात.. वर्धमान ने संसार के विषय में समझा और ज्ञान प्राप्त किया। अपनी यात्रा के माध्यम से.. उन्होंने जीवन में मनुष्यों के विभिन्न कष्टों तथा दुखों को भली-भांति समझा और अंततः अपनी साधना के द्वारा ज्ञान अर्जित किया। सत्यअन्वेषण की इस प्रयास अवधि में.. उन्होंने प्रेम एवं अहिंसा का उपदेश दिया। इंद्रियों को नियंत्रित करने में असाधारण कौशल प्राप्त होने के पश्चात.. उन्हें "महावीर" की संज्ञा से संबोधित किया जाने लगा। तपस्वी की भांति.. 12 वर्षों से अधिक समय तक जीवन व्यतीत कर.. उन्होंने 'कैवल्य ज्ञान' अर्थात सर्वज्ञता प्राप्त की। जैन दर्शन के अनुसार कैवल्य - विशुद्धतम ज्ञान को कहते हैं। इस ज्ञान के चार प्रतिबंधक कर्म होते हैं – मोहनीय.. ज्ञानावरण.. दर्शनवरण तथा अंतराय.. जिनका क्षय होने से कैवल्य ज्ञान का उदय होता है।
ज्ञान प्राप्त करने के पश्चात.. उन्होंने जन्म.. जीवन.. पीड़ा.. दुख तथा मृत्यु के चक्र से पूर्ण स्वतंत्रता की अवधारणा का प्रचार किया.. तथा अपनी यात्रा के माध्यम से मोक्ष प्राप्ति का मार्ग एवं जैन धर्म के सिद्धांतो का स्थापित किया।
भगवान महावीर द्वारा स्थापित एवं प्रतिपादित.. जैन धर्म के पंचशील सिद्धांत.. न केवल जैन धर्म.. अपितु समस्त संसार के लिए जीवन उपयोगी मंत्र हैं। सत्कर्म से युक्त.. धार्मिक जीवन व्यतीत करने के लिए.. वो जीवनोपयोगी पंचशील सिद्धांत हैं –
अहिंसा.. सत्य.. अस्तेय.. ब्रह्मचर्य तथा अपरिग्रह।
अहिंसा अर्थात किसी भी जीव को मन.. वचन तथा कर्म के द्वारा पीड़ा न हो.. । जैन पंथ के अनुसार अहिंसा परमो धर्मः अर्थात अहिंसा परमधर्म है। इसी कारण भगवान महावीर द्वारा प्रतिपादित अहिंसा का उपदेश.. प्राणिवध के त्याग का सर्वप्रथम उपदेश है। केवल प्राणों का ही वध नहीं.. अपितु समस्त जीवधारियों को पीड़ा पहुँचाने वाले असत्य भाषण को भी हिंसा का ही एक अंग माना गया है।
भगवान महावीर के अनुसार.. सत्य.. जीवन रुपी पथ पर.. शक्तिशाली कवच की भांति.. समस्त कंटकों से रक्षा करता है.. अतः जीवन में सत्य का अनुसरण अनिवार्य है।
भगवान महावीर द्वारा प्रतिपादित सिद्धांत – अस्तेय.. जीवन में संयम एवं संतुष्टि का कारक है। अस्तेय का अर्थ होता है चोरी नहीं करना.. किन्तु यहाँ चोरी का अर्थ केवल भौतिक संपदा की चोरी करने से नहीं अपितु दूसरों का अहित सोचने से भी है.. जिससे सभी मनुष्यों को बचना चाहिए।
ब्रह्मचर्य.. जीवन की उत्तम तपस्या के समान.. मोह-माया का त्याग करके.. आत्मा में लीन हो जाने की प्रक्रिया है।
अपरिग्रह भौतिक सुख में आसक्त न होने का सिद्धांत है.. जो जीवन में लोभ.. ईर्ष्या आदि विकृतियों का उन्मूलन करता है तथा शांति एवं प्रेम की उत्पत्ति करता है।
भगवान महावीर द्वारा स्थापित पंचशील सिद्धांत.. प्राचीन काल से.. मानव का मार्गदर्शन करते रहे हैं तथा समाज में प्रेम एवं सद्भाव की आधारशिला के रूप में विद्यमान हैं।
महावीर जयंती के अवसर पर.. महावीर को समर्पित मंदिरों एवं स्थलों को सजाया जाता है तथा महावीर स्वामी जी की मूर्ति का अभिषेक किया जाता है। जैन धर्म के अनुयायी.. भगवान महावीर की प्रतिमा की शोभायात्रा में समिल्लित होते हैं.. जिसमें जैन भिक्षु द्वारा रथ पर भगवान महावीर की प्रतिमा को नगर की परिक्रमा कराने का विधान है। इस प्रकार भक्त.. महावीर जी द्वारा प्रतिपादित उपदेशों एवं जीवन के सार को जन-जन तक पहुँचाते हैं।
जैन ग्रन्थों के अनुसार समय समय पर.. धर्म तीर्थ के प्रवर्तन के लिए तीर्थंकरों का जन्म होता रहा है तथा भगवान महावीर का जन्म.. धर्म तथा मानवता के प्रवर्तन के कारण ही हुआ था। यह व्यापक रूप से माना जाता है कि जब महावीर 72 वर्ष के थे.. तब उन्हें पावापुरी में निर्वाण प्राप्त हुआ था। भगवान महावीर ने जो आत्म-अवलोकन का मार्ग अपनाया.. अनुभव किया और उपदेश दिया.. वो आज भी मानवता के ह्रदय में जीवित है। भगवान महावीर की महान जीवनगाथा तथा उनके द्वारा प्रतिपादित उपदेशों ने.. अनन्य श्रद्धालुओं को अहिंसा एवं प्रेम का पथ अपनाने को प्रेरित किया है। भगवान महावीर ने उपदेश दिया था -"एक आत्मा की सबसे बड़ी गलती अपने वास्तविक स्वरूप को न पहचानना है और इसे केवल स्वयं को पहचानने से ही ठीक किया जा सकता है।"
भारत समन्वय परिवार की ओर से.. कालजयी अद्भुत ज्योति तथा मानवता के पर्याय.. भगवान महावीर को कोटि-कोटि नमन। उनके उपदेशों को जन जन तक प्रेषित करने के लिए.. हम निरंतर प्रयासरत भी हैं और संकल्पित भी।