Kasturba Gandhi | बापू से कम नहीं थी कस्तूरबा गाँधी के संघर्ष की कहानी | Bharat Mata
कस्तूरबा जिन्होंने बापू को महात्मा बनाया....
"जैसे-जैसे मेरे सार्वजनिक जीवन का विस्तार हुआ, मेरी पत्नी के व्यक्तित्व में परिवर्तन आया और उसने आगे बढ़कर स्वयं को मेरे काम में खपा दिया। समय बीतने के साथ मेरा जीवन और जनता की सेवा एकाकार हो गई। उसने धीरे-धीरे स्वयं को मुझ में समाहित कर दिया। शायद भारत की धरती, एक पत्नी में इस गुण के होने को सबसे अधिक पसंद करती है।"
ये शब्द थे महात्मा गांधी के जिन्होंने अपनी जीवनसंगिनी कस्तूरबा यानी 'बा' के लिए कहे थे ।
कस्तूरबा गांधी का जन्म 11 अप्रैल, 1869 में हुआ. वो एक अत्यंत धनी परिवार की बेटी थी। उनके पिता गोकुलदास मकनजी पोरबंदर के एक सम्मानित व्यापारी थे।
मोहनदास के पिता करमचंद गांधी भी पश्चिमी गुजरात की एक रियासत में दीवान थे।पोरबंदर में प्रतिष्ठित होने के कारण दोनों परिवार एक-दूसरे से ना केवल परिचित थे बल्कि अच्छे मित्र भी थे। दोनों के माता पिता ने अपनी पारिवारिक दोस्ती प्रबल करने के लिए मात्र तेरह साल की उम्र में ही कस्तूरबा और मोहनदास की विवाह करा दिया ,विवाह के पश्चात् कस्तूरबा की विद्यालयी शिक्षा बंद हो गई, जबकि मोहनदास की शिक्षा जारी रही और पढ़ाई के लिए वो विदेश तक गए। हालांकि कस्तूरबा घर पर ही पढ़ती थीं और मोहनदास भी उन्हें पढ़ाया करते थे।
ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ आजादी की लड़ाई लड़ बैरिस्टर मोहनदास करमचंद गांधी महात्मा गांधी बने, राष्ट्रपिता कहलाए, शांति और आजादी के दूत बने, लेकिन क्या यह सब उन्होंने अकेले अपने बल पर प्राप्त किया या फिर कोई सबल सहारा बनकर उनके साथ खड़ा रहा?
इसके जवाब में एक ही नाम है- वह है कस्तूरबा गांधी। यह वही नाम है, जो गांधी के सत्याग्रह, समर्पण और त्याग में बराबर का सहभागी बना। उनके हर कदम का साथी बना। तर्क-वितर्क किया, लेकिन हर फैसले को स्वीकार किया।
घर संभाला, आश्रम संभाले। न सिर्फ अपने बच्चों, बल्कि आंदोलनकारियों पर भी ममता लुटाई। 'बा' ने गांधी जी की अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ छेड़ी गई हर लड़ाई को मजबूत बनाया , उन्होंने महिलाओं को जोड़ा, जिससे भारत का घर-घर आजादी के आंदोलन से जुड़ता गया ।
कस्तूरबा गांधी की दृढ़ता और साहस, न केवल दक्षिण अफ्रीका बल्कि भारत में न्याय के लिए महात्मा गांधी की लड़ाई की रीढ़ प्रमाणित हुआ।
कस्तूरबा गांधी दक्षिण अफ्रीका के ट्रांसवाल में धरना देने वाली पहली सत्याग्रहियों में से एक थीं,
जहां की औपनिवेशिक सरकार ने सभी गैर-ईसाई विवाहों को अमान्य घोषित कर दिया था।
दक्षिण अफ्रीका से वापस आने पर वो अपना अधिकतम समय गांधीजी के आश्रम और आश्रमवासियों की सेवा में व्यतीत करती थीं। 1917 में जहां गांधीजी ने चंपारण के नील किसानों का मुद्दा उठाया तो वहीं कस्तूरबा ने महिला कल्याण के लिए एक नयी पहल की शुरुआत की, उन्होंने बालिका शिक्षा और बालविवाह जैसी सामाजिक कुरीतियों से मुक्ति के लिए विद्यालय खोलने का निर्णय लिया । वर्ष 1930 में वो गांधीजी के नमक सत्याग्रह के लिए किए गए डांडी मार्च में वो शामिल नहीं हो सकीं परन्तु सविनय अवक्षा आंदोलन में उन्होंने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। आजादी की लड़ाई में शामिल होने की वजह से उन्हें जेल भी जाना पड़ा लेकिन वो कभी पीछे नहीं हटीं।
वर्ष 1942 में महात्मा गांधी मुम्बई के शिवाजी पार्क में एक बहुत बड़ी जनसभा को संबोधित करने वाले थे, लेकिन उससे एक दिन पूर्व ही उन्हें बिड़ला हाऊस से गिरफ़्तार कर लिया गया.
गांधी जी की गिरफ़्तारी के बाद सबसे बड़ा सवाल उठा कि उस सभा का मुख्य वक्ता कौन होगा? उस समय समस्त मुम्बई में गांधी के क़द का कोई भी शख़्स मौजूद नहीं था. तभी कस्तूरबा ने कहा था, "परेशान होने की ज़रूरत नहीं है. सभा को मैं को संबोधित करूंगी."
कस्तूरबा की ये बात सुन कर लोग हैरान रह गये , क्योंकि 'बा' न सिर्फ़ बीमार थीं, बल्कि इससे पहले उन्होंने कभी भी इतनी विशाल सभा को संबोधित नहीं किया था.
उन्होंने डेढ़ लाख लोगों की भारी जनसभा को संबोधित किया, उनकी आवाज़ सुन कर पूरा माहौल भावपूर्ण हो गया. बहुत से लोगों की आंखें नम हो आईं.
जैसे ही उनका भाषण समाप्त हुआ, पुलिस ने उन्हें गिरफ़्तार कर लिया. तीस घंटों तक उन्हें सामान्य अपराधियों के साथ एक काल कोठरी में रखा गया. उसके बाद उन्हें पुणे के आग़ा ख़ाँ पैलेस में ले जाया गया जहाँ महात्मा गांधी पहले से ही क़ैद थे.
गिरफ्तारी के दो महीने बाद ही 'बा' को गंभीर प्रकार का 'ब्रोंकाइटिस' हो गया जिससे वो बहुत कमज़ोर हो गईं और अपना सारा समय बिस्तर पर ही व्यतीत करने लगीं.
कस्तूरबा ने अपनी आखिरी सांस पुणे के आगाखान डिटेंसन कैंप में बापू की गोद में ली।
शरीर छोड़ने से पहले बापू की ओर देखकर उन्होंने कहा था कि ‘मैं अब जाती हूं। हमने बहुत सुख भोगे, दुख भी भोगे। मेरे बाद रोना मत" कहते-कहते 'बा' ने बापू को सदा के लिए अलविदा कह दिया।
जब बा का अंतिम संस्कार किया गया तो गांधी जी चिता के सामने एक पेड़ के नीचे तब तक बैठे रहे जब तक कि उसकी लौ पूरी तरह से बुझ नहीं गई.
लोगों ने गांधी से कहा भी आप अपने कमरे में जाइए. गांधी का जवाब था, "उसके साथ 62 सालों तक रहने के बाद मैं इस धरती पर उसके आख़िरी क्षणों में उसका साथ कैसे छोड़ सकता हूँ. अगर मैं ऐसा करता हूँ तो वो मुझे कभी माफ़ नहीं करेगी.
महात्मा गांधी ने कहा था कि , 'बा' को हमेशा ये अहसास रहा कि अगर वह चली जाएंगी तो मैं टूट जाउंगा। अगर बा का साथ न होता तो मैं इतना ऊंचा उठ ही नहीं सकता था। यह बा ही थीं, जिन्होंने मेरा पूरा साथ दिया। नहीं तो इश्वर जाने क्या ही होता? मेरी पत्नी मेरे अंत:करण को जिस प्रकार प्रभावित करती थी, उस प्रकार दुनिया की कोई स्त्री नहीं कर सकती। वह मेरे जीवन का अविभाज्य अंग थीं, उसके जाने से जो सूनापन पैदा हो गया है, वह कभी भर नहीं सकता।'
Bharat Mata परिवार ऐसी पतिव्रता पत्नी और कर्तव्यनिष्ठ नारी कस्तूरबा गाँधी को सादर नमन करता है।