अमर देशभक्ति और मातृशक्ति की गाथा - रानी लक्ष्मीबाई | Rani Laxmi Bai – A Woman To Be Remembered
1857 में जहाँ मुल्क में अंग्रेज़ों के खिलाफ़ भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का बिगुल बज उठा था.. उस दौर में देश.. समाज में व्याप्त नारी और पुरुष के बीच की असमानता की रूढ़िवादी धारणाओं से भी जूझ रहा था.. ऐसे वक़्त में देश ने एक ऐसी शक्ति का उदय देखा जिसने ने केवल आज़ादी की लड़ाई में अहम क़िरदार निभाया बल्कि पूरी दुनिया को ये भी साबित कर दिया कि नारी किसी भी लिहाज़ से कमज़ोर नहीं है।
ये शक्ति का पर्याय कोई और नहीं.. वाराणसी में 19 नवम्बर 1828 को जन्म लेने वाली प्यारी सी बच्ची मणिकर्णिका ताम्बे थी.. जिन्हें आज पूरी दुनिया रानी लक्ष्मीबाई के नाम से जानती है।
कौन जानता था की बचपन में मनु नाम से पुकारी जाने वाली ये छोटी सी बच्ची.. भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की नायिका के रूप में हमेशा के लिए अमर हो जाएगी। उनके पिता मोरोपंत ताम्बे और माता भागीरथी बाई की परवरिश में मनु एक ऐसी महिला बन रही थी.. जो एक तरफ़ शास्त्रों को पढ़ सकती है तो दूसरी तरफ़ शस्त्रों को भी संभाल सकती है। बिठूर में पेशवा बाजीराव द्वितीय के सहायक.. मोरोपंत ताम्बे.. आधुनिक सोच के व्यक्ति थे जो लड़कियों की स्वतंत्रता और उनकी पढ़ाई-लिखाई के पक्षधर थे। मनु के 4 साल के होने पर जब उसकी माता का देहांत हुआ.. तब पिता मोरोपंत ताम्बे ने ही उसका पालन-पोषण किया और रीति-रिवाजों के खिलाफ़ जाकर.. मनु के लिए शस्त्र-विद्या की भी व्यवस्था की।
छोटी सी आयु में ही शस्त्र-विद्या में निपुण मनु की अद्भुत प्रतिभा.. चंचलता और सुन्दरता को देखकर.. पेशवा उसे प्यार से छबीली के नाम से पुकारा करते थे। उनके प्रांगण में मनु.. नानासाहेब और तात्या टोपे के साथ पढ़ती-लिखती.. खेलती और साथ ही घुड़सवारी.. निशानेबाज़ी.. घेराबंदी और तलवारबाज़ी का अभ्यास करती थी।
केवल 14 साल की उम्र में झांसी के महाराज गंगाधर राव नेवालकर के साथ उसका विवाह होने पर.. उसका नाम लक्ष्मीबाई रखा गया और इस तरह काशी की छोटी सी मनु.. झांसी की रानी लक्ष्मीबाई बन गयी.. पर उनके वैवाहिक जीवन की ख़ुशी ज़्यादा दिन न रह सकी। उनका पुत्र दामोदर राव केवल 4 महीने की आयु में ही काल के ग्रास में समा गया और राजा गंगाधर राव की सेहत भी ख़राब होने लगी।
झांसी की सुरक्षा और स्वतंत्रता को ध्यान में रखते हुए उन्होंने एक रिश्तेदार के पुत्र को दत्तक पुत्र बनाने का फ़ैसला लिया और ब्रिटिश सरकार की मौजूदगी में आनंद राव नाम के बालक को गोद ले लिया.. जिसका बाद में दामोदर राव नाम रखा गया।
लेकिन लगातार बीमार रहने के वजह से महाराज गंगाधर राव नेवालकर की तबीयत बिगड़ती गयी और 21 नवंबर 1853 को उनका देहांत हो गया। पुत्र और पति की मृत्यु से रानी लक्ष्मीबाई बहुत आहत हुईं पर इतनी कठिन परिस्थिति में भी उन्होंने धैर्य नहीं खोया। वहीं उनके दत्तक पुत्र दामोदर की आयु कम होने की वजह से उन्होनें राज्य का उत्तराधिकारी बनने का फ़ैसला लिया।
उस समय ब्रिटिश सरकार ने Doctrine of Lapse नाम का एक नियम बना रखा था जिसके तहत अगर राजा का ख़ुद का पुत्र हो तो उसे राजा का उत्तराधिकारी माना जाएगा लेकिन अगर ऐसा नहीं है तो उसका राज्य ईस्ट इंडिया कंपनी में मिला दिया जाएगा। झाँसी को हड़पने की नीयत से ब्रिटिश सरकार ने बालक दामोदर राव पर मुक़दमा कर दिया.. राज्य का खज़ाना ज़ब्त कर लिया और उनके पति के कर्ज़ को रानी के सालाना ख़र्च में से काटने का फ़रमान जारी कर दिया। इस विषम परिस्थिति में रानी को झाँसी का क़िला छोड़कर झाँसी के रानीमहल में जाना पड़ा.. पर रानी लक्ष्मीबाई ने हिम्मत नहीं हारी और उन्होनें हर हाल में झाँसी की रक्षा करने का निश्चय किया।
झांसी को बचाने के लिए रानी लक्ष्मीबाई ने कुछ अन्य राज्यों की सहायता से एक सेना तैयार की और पहले से ही अंग्रेज़ों से त्रस्त भारतीय जनमानस ने 1857 में अंग्रेज़ों के खिलाफ़ विद्रोह शुरू कर दिया। झाँसी 1857 की क्रांति का प्रमुख केंद्र बन चुका था। इस बीच मौके का फ़ायदा उठाने के लिए पड़ोसी राज्य दतिया और ओरछा के राजाओं ने झाँसी पर हमला कर दिया लेकिन रानी लक्ष्मीबाई के अदम्य साहस के सामने कोई भी टिक न सका।
1858 में एक बार फिर झांसी पर कब्ज़ा करने की ज़िद में अंग्रेज़ों ने हू्य रोज के नेतृत्व में झांसी के किले को घेर लिया। करीब 2 हफ़्ते तक चली इस लड़ाई में झांसी की रानी अकेले ही अपनी पीठ के पीछे दामोदर राव को कसकर.. घोड़े पर सवार हो.. अंग्रेजों से युद्ध करती रहीं। वीरतापूर्वक युद्ध करने के बाद भी.. अंग्रेज़ों ने तोपों और गोले-बारूद की मदद से किले की दीवार को तोड़कर झाँसी पर कब्ज़ा कर लिया। रानी लक्ष्मीबाई अपने पुत्र दामोदर राव को बचाते हुए.. अपने दल के साथ काल्पी आ गयीं और यहाँ हुए युद्ध में उन्होंने.. तात्या टोपे के साथ मिलकर अंग्रेज़ों को बुरी तरह से हरा दिया। इस हार से तिलमिलाए अंग्रेज़ों ने कुछ वक़्त बाद फिर से ज़्यादा सैन्य बल के साथ काल्पी पर हमला किया और इस बार जीत गए। अंग्रेज़ों के खिलाफ़ संग्राम का संकल्प ले चुकीं रानी लक्ष्मीबाई ने अपने लक्ष्य को पाने के लिए.. ग्वालियर पर जीत हासिल की और फिर ग्वालियर के पूर्व क्षेत्र से ही किंग्स रॉयल आयरिश के खिलाफ़ लड़ाई लड़ी। दुर्भाग्य से ये युद्ध रानी लक्ष्मीबाई का अंतिम युद्ध था। अपने अंतिम समय में भी रानी लक्ष्मीबाई निडर होकर.. घायल अवस्था में भी लड़ती रहीं और 17 जून 1858 को कोटा के सराई के पास.. ग्वालियर के फूलबाग क्षेत्र में वीरगति को प्राप्ति हुईं। प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की नायिका रानी लक्ष्मीबाई को असहनीय वेदना हो रही थी पर उनके मुख पर शौर्य की आभा और अपने सिद्धांतों से समझौता न करने का संतोष विराजमान था।
उनके पास न ही कोई शक्तिशाली राज्य था और न ही बहुत बड़ी सेना.. दुश्मन चारों तरफ़ थे और विशाल ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ़ थीं झांसी की रानी – रानी लक्ष्मीबाई।
“मैदाने जंग में मारना है..
फ़िरंगी से नहीं हारना है!”
रानी लक्ष्मीबाई के द्वारा कहे गए एक एक शब्द में उनका शौर्य झलकता है.. स्वतंत्रता संग्राम में उनकी अद्भुत वीरता और अद्वितीय पराक्रम देखकर अंग्रेज़ भी चौंक गए थे। अंग्रेज़ कैप्टन ह्यु रोज ने कहा था - ”1857 के विद्रोह की रानी लक्ष्मीबाई सबसे ख़तरनाक विद्रोही के रूप मे सामने आयी थीं.. जिसने अपने सूझबूझ.. साहस और निडरता का परिचय देकर अंग्रेज़ों का भीषण प्रतिकार किया था।”
रानी लक्ष्मीबाई के अतुलनीय शौर्य को कुछ शब्दों में पिरोना.. आकाश की ऊंचाई को मापने के समान है। प्रसिद्ध कवि अमित जैन मौलिक के शब्दों में –
विस्मृति की धुंध हटाकर के.. स्मृति के दीप जला लेना..
झांसी की रानी को अपने.. अश्कों के अर्घ चढ़ा देना..
आज़ादी की बलिबेदी पर.. हँसते हँसते कुर्बान हुईं..
उस शूरवीर मर्दानी को.. श्रद्धा से शीश झुका देना।
रानी लक्ष्मीबाई केवल झांसी का रानी न होकर सम्पूर्ण विश्व के लिए एक प्रेरणा हैं.. एक ऐसी प्रेरणा जिन्होंने गोद लिए हुए बच्चे के अधिकार के लिए लड़ाई लड़ी.. एक महिला के राज्य पर शासन करने के अधिकार के लिए लड़ाई लड़ी.. महिलाओं को युद्ध में वर्दी पहनने के अधिकार के लिए लड़ाई लड़ी.. सती न होकर.. जीने और शासन करने की स्वतंत्रता के लिए लड़ाई लड़ी.. समाज के हर 'नागरिक'.. महिला या पुरुष.. हिन्दू या मुस्लिम.. सभी के आज़ादी की लड़ाई में भाग लेने के लिए लड़ाई लड़ी और इस तरह उन्होंने अपनी ज़िन्दगी को अपने सिद्धांतों पर जीने की प्रेरणा दी। महिला सशक्तिकरण की अद्वितीय मिसाल वीरांगना रानी लक्ष्मीबाई को भारत समन्वय परिवार की ओर से कोटि-कोटि नमन।
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