मैत्रेयी - Bharat Mata: Indian History and Culture

मैट्रिक महर्षि याज्ञवल्क्य के महत्व और कात्यायनी दो पत्नियां की मैत्री ब्रह्मवादिनी और कात्यायनी साधारण बुद्धि की थी। मैत्री जेस्ट पत्नी की और कात्यायनी छोटी चिरकाल तक दोनों पत्नियों के साथ रहते हुए एक दिन महर्षि के मन में संसार से निवृत होने का संकल्प अंकुरित हुआ। उसी समय दोनों पत्नियों को बुलाकर मैत्री को संबोधित करते हुए महर्षि ने कहा, मेरा विचार संन्यास लेने का है। इसलिए इस स्थान को छोड़कर अन्यत्र चला जाऊंगा। इस कार्य के लिए आप दोनों की अनुमति आवश्यक है। साथ ही यह चाहता हूं कि घर में जो कुछ भी धन दौलत है उसे तुम दोनों में बराबर बराबर बांट दूं, जिससे मेरे जाने के बाद तुम दोनों में विवाद ना हो। यह सुनकर कात्यायनी चुप रहे। परंतु मैं तेरे ही नहीं पूछा।

भगवन यदि धन-धान्य से परिपूर्ण सारी पृथ्वी केवल मेरे ही अध। कार में आ जाए तो क्या मैं उसे किसी प्रकार अमर हो सकती हूं। याज्ञवल्क्य ने कहा नहीं। वह सामग्रियों से संपन्न मनुष्य का जीवन जैसा होता है। बैलों की दृष्टि से जितने सुख सुविधा में रहते हैं, वैसे ही तुम्हारा जीवन होगा। परंतु धन से कोई अमर हो जाए। उसे अमरत्व की प्राप्ति हो जाए। इसकी आशा कदापि नहीं करनी चाहिए।

मैत्रिणी सुन कर कहा भगवन जिससे मैं अमर नहीं हो सकती। उसे लेकर क्या करूंगी। यदि धन से ही वास्तविक सुख मिलता तो आप इसे छोड़कर क्यों जाते। आप ऐसी कोई वस्तु अवश्य जानते हैं जिसके सामने यह धन यह गृहस्ती का सारा सुख प्रतीत होता है। मैं भी उसी को जानना चाहती हूं या देव बाबा वेद सदैव में ब्लू ही केवल जिस वस्तु को श्रीमान अमृत तत्व का साधन जानते हैं, उसी का मुझे उपदेश करें। मैं तेरी किए जिज्ञासा पूर्ण बात सुनकर महर्षि अत्यंत प्रसन्न हुए और कहा मैत्री तुम धन्य हो।मुझे पहले ही प्रिय थी। इस समय भी प्रवचन निकला है। इसलिए मेरे समीप बैठो और जो उपदेश करो उसे सुनकर मनन करो और निदिद्यासन को धारण करो। महर्षि ने उपदेश क्या मैत्री तुम जानती हो कि स्त्री को पति और पति को इस्त्री क्यों प्रिय है। इस रहस्य पर कभी विचार किया। पति इसलिए नहीं कि वह पति है बल्कि इसलिए प्रिय है कि वह आत्मा को प्रियता देता है।

वह अपनी आत्मा के लिए प्रिय है। इसी प्रकार पति को इतनी इसलिए फ्री नहीं होती कि वह स्त्री है इसलिए प्रिय आत्मा को सुख मिलता है। इसी न्याय से पुत्र ब्राह्मण क्षत्रिय लोक देवता, समस्त प्राणी अथवा संसार के संपूर्ण पदार्थ भी आत्मा के लिए प्रिय जान पड़ते हैं। अतः सबसे बढ़कर प्रिय वस्तु आत्मा ही है। आत्मा बारे दृष्टा विरोधियों मंतव्य।निधि ध्यान से तबियत रही, आसमानों व आर्य दर्शनीय श्रवण मत या विज्ञान एवं सर्वप्रथम मैत्री तुम्हें आत्मा का ही दर्शन, श्रवण, मनन और निदिद्यासन करना चाहिए। उसी के दर्शन श्रवण, मनन और यथार्थ ज्ञान से सब कुछ जांच हो जाता है। उपदेश देकर याज्ञवल्क्य सन्यासी हो गए। मैत्री यह उपदेश पात्र तो चार्ज हो गई। यही यथार्थ संपत्ति है जिसे मैत्री ने प्राप्त किया।

मैत्री ने जो संपत्ति प्राप्त की और चिरकाल तक रहती है, उसमें कभी घाटे का सौदा नहीं है। मैं तेरी जैसी स्थाई संपत्ति प्राप्त करने का आज भी प्रयत्न किया जाए तो सुख दुख की समस्याओं से निवृत्ति प्राप्त की जा सकती है। मैं फ्री का यह चरित्र हम सब को सदा प्रेरणा देता रहेगा। ऐसा विश्वास है पर एक ग्रह के आधुनिक समय में मैत्री कि यह जिज्ञासा माता बहनों। भाइयों का मार्ग प्रशस्त करती रहेगी। अपरिग्रह जीवन दिशा आत्म तत्व का पथ आलोकित करती है।

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