Mata Sati Savitri | कहानी सावित्री और सत्यवान की | पति के लिए यमराज से लड़ जाने वाली सती सावित्री

विवाह का बंधन प्रेम, त्याग और विश्वास का अटूट रिश्ता है। हिंदू धर्म में विवाह को सोलह संस्कारों में से एक संस्कार माना गया है। हिंदू विवाह, पति और पत्नी के बीच जन्म-जन्मांतरों का सम्बंध होता है जिसे किसी भी परिस्थिति में नहीं तोड़ा जा सकता। अग्नि के सात फेरे ले कर, ध्रुव तारे को साक्षी मानते हुए दो तन, मन तथा आत्मा एक पवित्र बंधन में बंध जाते हैं। 

अपने पति की लम्बी उम्र के लिए पत्नियां 16 श्रृंगार करती है और कई व्रत भी धारण करती है जिससे की उन्हें ईश्वर से सदा सुहागन रहने और उनके गृहस्थ जीवन पर किसी भी प्रकार का कोई संकट न आने का आशीर्वाद प्राप्त हो।    

हिन्दू मान्यता के अनुसार, प्रति वर्ष जेष्ठ मास की अमावस्या को उत्तर भारत की सुहागनों तथा जेष्ठ मास की पूर्णिमा को दक्षिण भारत की सुहागन महिलाओं द्वारा वट सावित्री व्रत के रूप में मनाया जाता है। कहा जाता है वट वृक्ष की जड़ो में ब्रह्मा, तने में विष्णु व पत्तों में भगवान शिव विराजमान है। इस व्रत में महिलाएं वट वृक्ष की पूजा करती है तथा सती सावित्री माता की कथा सुनने से विवाहित महिलाओं को अखंड सौभाग्यवती होने का वरदान मिलता है।  

पवित्र धार्मिक ग्रन्थ महाभारत में अनेकों पौराणिक कथाओं का संग्रह है, माता सावित्री और सत्यवान की कथा का वर्णन भी सर्वप्रथम महाभारत के वन पर्व में मिलता है। जब वन में गए युधिष्ठिर ने मार्कण्डेय मुनि से पूछा '' प्रभु क्या कोई अन्य नारी भी द्रोपती के समान पतिव्रता हुई है? जिन्होंने जन्म तो राजकुल में लिया हो परन्तु पतिव्रत धर्म के लिए उन्हें वनों में भटकना पड़ा हो''। तब मुनि बोले कि पहले भी सावित्री नाम की एक नारी सबसे कठिन पतिव्रत धर्म का पालन कर चुकी है।  

कथा के अनुसार मद्रदेश के राजा अश्वपति की पुत्री का नाम सावित्री था। सावित्री जब विवाह योग्य हो गयी, तब महाराज अपनी पुत्री के विवाह को लेकर चिंतित थे।उन्होंने सावत्री से कहा पुत्री अब तुम विवाह के योग्य हो गयी हो अब तुम स्वयं ही अपने लिए वर चुनकर विवाह कर लो। जिसके बाद सावित्री शीघ्र ही वर की  ख़ोज करने के लिए राज ऋषियों के रमणीय तपोवन में पहुंची और कुछ दिनों तक वह वर की तलाश में वन में भटकती रही। 

एक दिन मद्रराज अश्वपति अपनी सभा में बैठे थे। उसी समय मंत्रियों सहित सावित्री वन से वापिस लौटी, तब राजा की सभा में नारदमुनि भी उपस्थित थे। नारद जी ने जब राजा से राजकुमारी के विषय में पूछा तो राजा ने कहा राजकुमारी अपने वर की तलाश में गयी थी। जब राजकुमारी दरबार में पहुँची तो राजा ने उनसे वर  के चुनाव के विषय में पूछा, तो उन्होंने बताया कि शालू देश के राजा के पुत्र जो की जंगल में पले बढ़े है उन्हें मैंने अपने पति रूप में स्वीकार किया है, उनका नाम सत्यवान है। तब नारद जी बोले यह तो बड़े खेद की बात है क्योंकि इस वर में एक दोष है यह वर अल्पायु है, और एक वर्ष बाद ही इसकी मृत्यु हो जायेगी। नारदमुनि ने सावित्री से कहा आप किसी और वर का चुनाव करे, पर सावित्री बोली - मैं एक हिन्दू नारी हूँ और हिन्दू धर्म में कन्यादान केवल एक ही बार किया जाता है। जिसे मैंने एक बार वरन कर लिया है मैं उन्ही से विवाह करुँगी।पिता जी आप उन्हीं से मेरा विवाह करा दीजिये। जिसके बाद राजा ने सावित्री का पूरे विधि विधान के साथ सत्यवान से विवाह करा दिया। सावित्री और सत्यवान के विवाह को कुछ समय बीत गया था,तब सावित्री को पता चला की अब उसके पति की मृत्यु निकट है तो सावित्री ने तीन दिन का व्रत धारण किया। एक दिन जब सत्यवान जंगल में लकड़ी काटने गए तो सावत्री ने कहा में भी आपके साथ चलूंगी। तब सत्यवान ने कहा तुम व्रत के कारण कमज़ोर हो गयी हो इसलिए तुम मेरे साथ नहीं आ सकती परन्तु सावित्री नहीं मानी और सत्यवान के साथ वन में आ गयी।  

सत्यवान जब लकड़ी काट रहे थे तो अचानक उनका स्वास्थ्य अत्यधिक खराब होने लगा सत्यवान ने सावित्री से कहा, मैं स्वस्थ महसूस नहीं कर रहा हूँ मुझमें यहां बैठने की भी हिम्मत नहीं है। तभी सावित्री ने उनसे कहा आप इस पेड़ के नीचे विश्राम कीजिये। जिस वृक्ष की छाव में सत्यवान ने विश्राम किया वह वट का वृक्ष था। सावित्री ने सत्यवान का सिर अपनी गोद में रखा व नारद मुनि की बात याद करने लगी, उतने में ही वहां मृत्यु के देवता यमराज आ गए और सत्यवान के शरीर में से प्राण निकाल कर दक्षिण दिशा की ओर चल दिए। 

सावत्री ने यमराज से कहा कि या तो आप मेरे पति के प्राण लौटा दीजिये अन्यथा, मेरे पति देव को जहां भी ले जाया जाएगा मैं भी उनके साथ जाऊंगी। तब यमराज ने उन्हें समझाया कि देवी न तो मैं सत्यवान के प्राण लौटा सकता हूँ और न आपको अपने साथ ले जा सकता हूँ, बदले में आप मन चाहा वर मांग सकती हो। तब सावित्री ने यमराज से उनके सास-ससुर की आँखे मांग ली और यमराज ने उन्हें तथास्तु कह कर वापिस जाने को कहा, परन्तु सावित्री वापिस नही लौटी और यमराज के पीछे पीछे चलने लगी। यमराज ने उन्हें फिर समझाया और एक और वर मांगने को कहा तब सावित्री ने  कहा कि मेरे ससुर को उनका खोया हुआ राज्य वापिस मिल जाए, यमराज ने फिर तथास्तु कह कर उन्हें वापिस जाने को कहा, परन्तु सावित्री ने वापिस लौटने की बात नही मानी और यमराज के पीछे पीछे चलने लगी। इसके बाद यमराज ने सावित्री को अंतिम वर मांग कर वापिस जाने को कहा। तब सावित्री ने यमराज से कहा मुझे सत्यवान से 100 यशस्वी पुत्र प्राप्त हो, यमराज ने सावित्री को तथास्तु कह कर उन्हें वापिस जाने को कहा, परन्तु सावित्री ना मानी, जिसके बाद यमराज क्रोधित हो गये। इसके पश्चात सावित्री हाथ जोड़ कर बोली ''हे यम देव मैं वापिस कैसे लौट जाऊ आपने ही तो मुझे सत्यवान से 100 यशस्वी पुत्र प्राप्त होने का वरदान दिया है।  

सावित्री के पतिव्रत धर्म को देखकर यमराज उनके सम्मुख नतमस्तक हो गए और सत्यवान के प्राण लौटा दिए।  

इस प्रकार सावित्री ने न केवल अपने पति के प्राणो को वापिस पाया बल्कि अपने सास ससुर की आँखे और उनके खोये हुए राज्य को भी प्राप्त किया। तभी से वट सावित्री अमावस्या और वट सावत्री पूर्णिमा के दिन वट वृक्ष की पूजा अर्चना करने की परम्परा है। माना जाता है वट सावित्री का व्रत करने से सौभाग्यवती महिलाओं की मनोकामना पूर्ण होती है और उनका सुहाग अखंड रहता है।  

भारत माता परिवार का प्रयास हैं की हम ऐसी पवन मातृ शक्तियों के आदर्शों और जीवन मूल्यों को जन जन तक प्रेषित करें, और भारतीय संस्कृति की इस भावधारा से जन मानस को प्रेरणा प्राप्त करने में सहायक हो।