Mata Trijata | सीता त्रिजटा को अपनी माता के समान क्यों समझती थीं? | त्रिजटा राक्षसी या देवी ?
पौराणिक कथाओं के माध्यम से प्रत्येक युग में सद्गुणों के अनुरूप व विपरीत दोनों प्रकार के मनुष्यों की झलक देखने को मिलती है. रामचरितमानस भारतीय संस्कृति का एक परमादर्श महाकाव्य है। त्रेतायुग की इस महागाथा में अनेक महानायक व खलनायक है। पावन नगरी अयोध्या में श्रीराम का साम्राज्य था और रामराज्य में सभी सुखी और साधन संपन्न लोग निवास करते थे और आध्यत्मिक जीवन जीते थे। वहीं लंका का दृश्य विपरीत था। राक्षसों के राजा रावण के राज्य में प्रजा तामसिक प्रवृति की थी और उद्दंड प्रवृत्ति के होने के कारण अत्याचार उनके स्वभाव में था। ऐसे अराजक माहौल में भी लंका में विभीषण, मंदोदरी आदि जैसे सह्दय और परोपकारी मानव भी निवास करते थे।
लंकापति रावण के राज्य में एक अच्छे व्यवहार और विनम्रता के गुणों से सुसज्जित राक्षसी त्रिजटा थी। त्रिजटा राक्षसी थी, परन्तु उसका जीवन परोपकार के गुणों से परिपूर्ण था। देवी सीता को जब राक्षसराज रावण अपहरण कर लंका में लाया, उस समय उनको बंदी बना कर अशोकवाटिका में रखा गया। उस समय रावण ने अनेक राक्षसियों को माता सीता पर निगरानी रखने के लिए तैनात किया था। इन राक्षसियों में एक त्रिजटा थी। रावण ने सभी राक्षियों को यह आदेश दिया था कि किसी भी तरह वो सीता को उससे विवाह के लिए मनाएं। राक्षसियां मनाने से लेकर डराने-धमकाने तक सभी प्रयास कर रही थी, कि किसी भी प्रकार से माता सीता रावण से विवाह करने के लिए तैयार हो जाए।
उस समय त्रिजटा ने देवी सीता की सहायता की और वहां पर उपस्थित राक्षसियों को अपने एक स्वप्न के बारे में बताया।
श्रीरामचरितमानस के सुन्दरकाण्ड माता त्रिजटा और उनके स्वप्न को वर्णित करते हुए कहा गया है-
भवन गयउ दसकंधर इहाँ पिसाचिन बृंद।
सीतहि त्रास देखावहिं धर हिं रूप बहु मंद ॥
त्रिजटा नाम राच्छसी एका। रामचरन रति निपुन बिबेका।
सबन्हौं बोलि सुनाएसि सपना। सीतहि सेई कहु हित अपना॥
सपनें बानर लंका जारी। जातुधान सेना सब मारी॥
खर आरूढ़ नगन दससीसा। मुन्डित सिर खंण्डित भुजबीसा॥
एहि विधि सो दच्छिन दिसि जाई। लंका मनहूं विभीषण पाई ।
नगर फिरी रधुबीर दोहाई। तव प्रभु सीता बोलि पठाई॥
यह सपना मैं कहऊँ पुकारी। होहहि सत्य गएँ दिन चारी॥
तासु बचन सुनिते सब डरी। जनक सुता के चरनन्हिं परीं॥
त्रिजटा ने कहा कि मैने स्वप्न में देखा कि श्रीराम अपने भाई लक्ष्मण के साथ सीता को रावण के पुष्पक विमान में बिठाकर उत्तर दिशा की ओर ले जा रहे हैं। रावण निर्वस्त्र गधे पर सवार होकर दक्षिण दिशा कि ओर जा रहा है। उसकी बीसों भुजाए कटी हुई है। विभीषण को लंका का राज मिल गया है और उसके दूसरे भाई जमीन पर पड़े हुए हैं लंका नगरी पानी में डूब रही है और एक वानर ने लंका में आग लगा दी है और राक्षसों की सेना का नाश कर दिया है। त्रिजटा प्रत्येक राक्षसी से सीता से क्षमा याचना करने के लिए कहती है। सीता उन सभी को वचन देती है कि वह लंका विजय के पश्चात् उन सभी को सुरक्षित रखेंगी।
कथानुसार एक प्रसंग में त्रिजटा देवी सीता की सहायता करती है और माता सीता को दिलासा देती है। श्रीराम और रावण के युद्ध से एक दिवस पूर्व रावण पुत्र मेघनाद रणक्षेत्र में आया था और उससे दोनों भाई श्रीराम और लक्ष्मण को नागपाश से बांध दिया था, जिस कारण दोनों मूर्छित हो गए। लंकापति रावण रणक्षेत्र में देवी सीता को श्रीराम की दशा देखने के लिए भेजता है। श्रीराम की ऐसी दशा देखकर माता सीता विलाप करने लगती हैं। उनको लगता है कि श्रीराम का देहवसान हो गया है। तभी त्रिजटा उनको समझाती है और बताती है कि श्रीराम और लक्ष्मण अभी जीवित है। इस प्रकार रावण की कैद में देवी सीता का सबसे बड़ा सहारा त्रिजटा थी। यही कारण है की देवी सीता त्रिजटा को माता के सामान समझती थी।
वैसे तो माता त्रिजटा रावण की सेविका थी परन्तु वह भगवान श्रीराम की विजय में विश्वास रखती थी। माता त्रिजटा ने अपने व माता सीता के संबंधों को जगजाहिर नही होने दिया किंतु प्रतिपल वह माता सीता को प्रत्येक महत्वपूर्ण जानकारी देती थी, जैसे कि लंका का दहन होना, समुंद्र पर सेतु बनना, राम लक्ष्मण का सुरक्षित होना इत्यादि। त्रिजटा के द्वारा समय-समय पर माता सीता को जानकारी देते रहने से उनकी हिम्मत बंधी रहती थी।
रावण मरण के पश्चात् विभीषण को लंका का अधिपति बनाया गया व उन्होंने उसी क्षण माता सीता को मुक्त करने का आदेश दिया। माता त्रिजटा देवी सीता के जाने से दुखी तो थी परन्तु उन्हें प्रसन्नता भी थी।
कुछ मान्यताओं के अनुसार अयोध्या वापस आने पर देवी सीता ने माता त्रिजटा के वात्सल्य व प्रेम के बारे में भगवान् राम को बताया था। जिसे सुनकर समस्त प्रजा अति प्रसन्न हुयी थी। साथ ही त्रिजटा को लंका में भी विभीषण के द्वारा अहम उत्तरदायित्व व उचित सम्मान भी दिया गया था.
एक मान्यता यह भी है कि लंका युद्ध के विजय के पश्चात् माता त्रिजटा को सीता के साथ अयोध्या जाना था किन्तु देवी सीता उनको वाराणसी जाने के लिए कहती हैं। जिससे की माता त्रिजटा को मोक्ष की प्राप्ति हो सके। उस समय देवी सीता ने त्रिजटा को यह वरदान भी दिया था कि वह काशी में सदैव पूज्यनीय रहेंगी। देवी सीता ने माता त्रिजटा को यह आशीर्वाद दिया था कि कलयुग में एक दिन तुम्हारी देवी के रूप में पूजा होगी, जो सब्जी तुम मुझे खिलाने वाली थीं, वही तुम्हे भक्त चढ़ाएंगे। इसलिए आज भी काशी विश्वनाथ मंदिर के पास त्रिजटा का भी मंदिर है। कार्तिक पूर्णिमा के अगले दिन मां त्रिजटा की पूजा होती है, और भक्त आज भी फूल और हरी सब्जियां माता त्रिजटा को समर्पित करते हैं।
भारत समन्वय परिवार ममता से परिपूर्ण माता त्रिजटा को सादर प्रणाम करता है।
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