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आत्मा का साक्षात्कार - Swami Satyamitranand Ji Maharaj | Adhyatam Ramayan | Pravachan

स्वामी जी का यह प्रवचन गहन आध्यात्मिक ज्ञान से ओतप्रोत है, जिसमें ब्रह्मा जी के माध्यम से भक्ति, कर्म, वासना, आत्मबोध और मोक्ष जैसे मूलभूत तत्वों पर गंभीर चिंतन प्रस्तुत किया गया है। ब्रह्मा जी स्पष्ट करते हैं कि केवल इंद्रियों, प्राण, बुद्धि या आत्मा के माध्यम से परमात्मा को जानना संभव नहीं है। सच्चा ज्ञान और मुक्ति तो परमेश्वर के स्मरण, प्रार्थना और भक्ति से ही प्राप्त होती है। भक्ति के माध्यम से ही आत्मशुद्धि होती है और व्यक्ति कर्म के बंधनों से मुक्त होता है।

कर्मबंध और जन्म-मृत्यु का चक्र

यह कर्मबंध ही जन्म और मृत्यु के चक्र को जन्म देता है, जो तब तक चलता रहता है जब तक हमारी वासनाएँ और कर्म शेष हैं। कथा में जड़ भरत की कथा का उदाहरण देकर यह स्पष्ट किया गया कि वासना—even करुणा जैसी उच्च भावना की वासना—भी पुनर्जन्म का कारण बन सकती है। ऋषि, जिन्होंने एक हिरण शावक के प्रति करुणा की भावना रखी, उस कारण फिर से जन्म लेने को बाध्य हुए।

वासनाओं का निरोध और मोक्ष

यह दिखाता है कि अंतिम क्षणों तक यदि कोई भी वासना शेष रह जाए, तो मोक्ष प्राप्त नहीं हो सकता। इसीलिए जीवन भर सत्कर्म करने के बाद भी यदि अंत समय में वासना का निरोध न हो, तो जन्म का कारण बना रहता है।

ध्यान की प्रक्रिया और साधना

प्रवचन में ध्यान की प्रक्रिया पर भी प्रकाश डाला गया है। गीता के अनुसार, साधक को आरंभ में अपनी नासिका के अग्रभाग पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। फिर अभ्यास से वह ध्यान आज्ञा चक्र (भौहों के मध्य) तक पहुंचता है और अंततः हृदय में स्थिर होता है, जहाँ परमात्मा का साक्षात्कार संभव होता है। यह बताया गया है कि केवल बाहरी दृष्टि नहीं, बल्कि आंतरिक दृष्टि द्वारा ही सच्चा ध्यान और आत्मसाक्षात्कार संभव है।

साधकों के दो प्रकार

ब्रह्मा जी स्वयं स्वीकार करते हैं कि वे पहले भी स्वार्थवश परमात्मा के पास आए थे, और आज भी रावण के बढ़ते अत्याचार के कारण देवताओं सहित उसी उद्देश्य से उपस्थित हैं। लेकिन वे यह भी कहते हैं कि समाज में दो प्रकार के साधक होते हैं—

  • स्वार्थ सिद्धि के लिए प्रभु की शरण में आने वाले

  • आत्मबोध और ब्रह्मज्ञान के लिए ध्यान करने वाले

आदि शंकराचार्य का संदेश

इस प्रवचन में आदि शंकराचार्य का एक प्रसिद्ध श्लोक भी उद्धृत किया गया, जिसमें बताया गया कि विद्या, वैभव, और भोग—ये सब व्यर्थ हैं यदि आत्मा का साक्षात्कार न हुआ हो। “लब्धा विद्या, राजमान्यता, प्राप्त संपत्ति, सुंदर भोग”—इन सभी की कोई महत्ता नहीं यदि आत्मज्ञान न हो। यह श्लोक जीव को चेतावनी देता है कि वह बाहरी उपलब्धियों में न उलझे, बल्कि आत्मबोध की ओर अग्रसर हो।

जीवन का अंतिम उद्देश्य – भक्ति

अंततः, यह प्रवचन हमें कर्मों के बंधन से मुक्ति, वासनाओं की निवृत्ति, और आत्मा के शुद्ध स्वरूप के अनुभव की ओर ले जाता है। भक्ति ही वह सरल, प्रभावशाली और सुलभ मार्ग है जो मनुष्य को परम सत्य की ओर ले जाता है। यही जीवन का अंतिम और वास्तविक उद्देश्य है।