चिंतन से चिंता मिटे - Swami Satyamitranand Ji pravachan | Adhyatm Ramayan | Chintan se Chinta Mite
भारत माता की इस प्रस्तुति में स्वामी सत्यमित्रानंद गिरी जी महाराज ने बताया है कि मनुष्य के जीवन में सबसे बड़ी आवश्यकता है — मन, वाणी और कर्म में एकता। जैसा हम सोचते हैं, वैसा ही बोलें, और जैसा बोलें, वैसा ही आचरण करें। यह आंतरिक और बाहरी जीवन में एकरसता लाता है, जिससे व्यक्तित्व में पवित्रता और ईमानदारी आती है। जब हम इस एकता को साध लेते हैं, तो भले ही लोग हमें महात्मा न कहें, और न ही हमें खुद को कोई महान समझने का अहंकार हो, फिर भी हम निश्चित रूप से भगवान के अपने बन जाते हैं। यही सबसे बड़ी उपलब्धि है — ईश्वर का प्रेम और सान्निध्य।
ब्रह्मा जी का एक प्रसंग उल्लेखनीय है। उन्होंने बड़ी विनम्रता और ईमानदारी से कहा कि वे भगवान के पास स्वार्थ लेकर आए हैं। यह बात उनकी महानता को ही दर्शाती है, क्योंकि मन में जो है, वही उन्होंने प्रकट कर दिया। हममें से अधिकतर लोग ऐसा नहीं कर पाते — सत्य को छिपा लेते हैं, बहाने बनाते हैं। यह ईमानदारी हमें सिखाती है कि सत्य बोलने का साहस भी एक प्रकार की भक्ति है।
भक्ति और सत्य बोलने का साहस
ब्रह्मा जी ने उन संतों की भी वंदना की जो ईश्वर की सीधी अनुभूति करते हैं। उन्होंने भक्ति की दुनिया की एक सूक्ष्म और विचित्र स्थिति पर प्रकाश डाला — कभी-कभी जो बड़ा होता है, वह छोटे भक्त से ईर्ष्या करने लगता है। यह ईर्ष्या भक्ति में नहीं होनी चाहिए, लेकिन फिर भी मानवीय दुर्बलता के रूप में यह देवताओं तक में देखी जाती है। उदाहरण के रूप में उन्होंने तुलसी और लक्ष्मी जी की कथा सुनाई। तुलसी भगवान के चरणों में चढ़ती है, और लक्ष्मी जी उनके वक्षस्थल पर निवास करती हैं। फिर भी लक्ष्मी जी तुलसी से ईर्ष्या करती हैं। यह एक गूढ़ संकेत है कि भक्ति का माप धन, स्थान या शक्ति नहीं है, बल्कि प्रेम और समर्पण है।
जीवन का अंतिम उद्देश्य — भक्ति और ईश्वर का स्मरण
रामकृष्ण परमहंस का एक दृष्टांत इस बात को और स्पष्ट करता है कि संसार में कोई स्थायी सार नहीं है। जब उनसे पूछा गया कि संसार असार है, इसका प्रमाण क्या है, तो उन्होंने एक केला मंगवाया और उसकी परतें हटवानी शुरू कीं। अंततः कुछ भी शेष नहीं बचा। उन्होंने कहा — “देखो, यह संसार ऐसा ही है, सब कुछ छिलका है, भीतर कुछ भी सार नहीं। असली सार तो भगवान की भक्ति है, और वही जीवन का अंतिम उद्देश्य होना चाहिए।”
ब्रह्मा जी भगवान से प्रार्थना करते हैं कि “हे प्रभु! मेरी सदा आपके चरणों में भक्ति बनी रहे।” यह प्रार्थना दिखाती है कि चाहे कोई कितना भी महान हो, भक्ति के बिना जीवन अधूरा है। फिर चाहे वो स्वयं ब्रह्मा ही क्यों न हों, उन्हें भी भगवान की कृपा और भक्ति की आवश्यकता है।
इसके पीछे कारण भी है। ब्रह्मा जी कहते हैं कि संसार के रोगों से तपे हुए लोगों के लिए अगर कोई सच्ची औषधि है, तो वह है — भक्ति। सांसारिक दवाइयाँ केवल शरीर को स्वस्थ करती हैं, लेकिन मन के रोग, जैसे चिंता, ईर्ष्या, असंतोष, इनका इलाज केवल भक्ति से ही संभव है। हमारी हृदय-भूमि में जब चाहें, तब चिंता और विषाद उग आता है, जैसे कोई बीज पहले से दबा हुआ हो और अवसर मिलते ही अंकुरित हो जाए।
शास्त्रों में चिंता को एक ज्वर की तरह बताया गया है। जैसे बुखार शरीर में जलन और बेचैनी बढ़ा देता है, वैसे ही चिंता का ज्वर मन को व्याकुल कर देता है। इसका एकमात्र उपाय है — ईश्वर का सतत चिंतन। चिंतन ही चिंता को नष्ट कर सकता है। यह कोई कल्पनात्मक बात नहीं, बल्कि अनुभूत सत्य है। जब हम भगवान पर पूर्ण विश्वास करते हैं, तो हम निश्चिंत हो जाते हैं। जैसे एक बालक कभी यह नहीं सोचता कि उसे क्या पहनना है या क्या करना है, वैसे ही एक भक्त भी अपनी चिंता भगवान को समर्पित कर देता है।
आज का युग दिखावे और प्रदर्शन का है। लोग दिन में चार बार कपड़े बदलते हैं ताकि समाज के अनुसार दिख सकें। यह भी एक प्रकार की चिंता है — दूसरों को प्रसन्न रखने की चिंता। लेकिन असली चिंता है — मन की शांति और आत्मा का संतुलन। वह केवल भक्ति से ही प्राप्त हो सकती है।
इसलिए जीवन में सबसे जरूरी है — ईमानदारी, समर्पण, और भगवान का निरंतर स्मरण। यही सच्ची भक्ति है, यही चिंता से मुक्ति है, और यही जीवन का सार है।