अपने अच्छे कर्म ईश्वर को अर्पित करें | Swami Satyamitranand Ji Maharaj | Adhyatm Ramayan | Pravachan
भारत माता चैनल प्रस्तुत करता है – स्वामी सत्यमित्रानंद गिरि जी महाराज का संदेश: "कर्म और समर्पण का वास्तविक अर्थ"
स्वामी सत्यमित्रानंद गिरि जी महाराज बताते हैं कि हमारे शास्त्रों में यज्ञ और कर्म की बड़ी ही गूढ़ और विस्तृत व्याख्या की गई है। इन दोनों विषयों को केवल धार्मिक क्रिया या अनुष्ठान मान लेना उचित नहीं है, बल्कि ये हमारे जीवन की दिशा और दृष्टि को निर्धारित करते हैं। महाराज जी कहते हैं कि कर्म के बिना जीवन संभव नहीं, परंतु केवल कर्म करना पर्याप्त नहीं है – उसे परमात्मा को समर्पित भाव से करना ही उसका शुद्ध और पुण्य रूप है। उन्होंने कहा कि जब हम कर्म करें तो उसमें न अहंकार हो, न स्वार्थ, बल्कि वह कर्म "ब्रह्मणि अर्पण" हो – अर्थात, ईश्वर को अर्पित।
समर्पण भाव का महत्व और सुंदर कथा
अपने प्रवचन में महाराज जी ने एक बहुत सुंदर और सरल कहानी के माध्यम से यह बात स्पष्ट की। उन्होंने जोधपुर के पास एक वृद्ध महिला की कथा सुनाई, जो एक गौशाला में काम करती थी। जब नारद जी गांव में आए, तो उस महिला ने उनसे पूछा, "महाराज! मैं तो पढ़ी-लिखी नहीं, कुछ विशेष जानती नहीं, फिर मैं कैसे भगवान की भक्ति करूं?" नारद जी ने सरल उत्तर दिया: "जो भी काम करो, उसे भगवान को अर्पित कर दो – श्रीकृष्णार्पणमस्तु कहो।"
इस बात को उसने बहुत श्रद्धा से ग्रहण किया। अगले दिन जब उसने गौशाला की सफाई करके बचा हुआ गोबर उठाया, तो उसे भी "श्रीकृष्णार्पणमस्तु" कहकर भगवान को समर्पित किया। संयोगवश, वह गोबर श्रीकृष्ण के पीतांबर पर लग गया। भगवान ने मुस्कराकर कहा, “आज मेरी मैया क्या कहेगी? माखन खाने वाला अब गोबर में खेलने लगा क्या?”
उस समय नारद जी भी वहाँ उपस्थित थे और उन्होंने यह देख कर गुस्से में आकर उस महिला को थप्पड़ मार दिया। परंतु उस वृद्ध महिला ने उस थप्पड़ को भी "श्रीकृष्णार्पणमस्तु" कहकर भगवान को अर्पित कर दिया। यह सुनकर भगवान बोले, “इतनी जोर से तो मैया ने भी नहीं मारा था। आज तो मेरा गाल लाल हो गया।” भगवान ने नारद जी को बुलाया और कहा, "अगर तुमने घूंसे मार दिए होते, तो वह भी श्रीकृष्णार्पण हो जाते!"
कर्म की पवित्रता और बुद्धि का समर्पण
इस कहानी के माध्यम से महाराज जी ने यह गहरा संदेश दिया कि जब व्यक्ति सच्चे समर्पण भाव से कोई भी कार्य करता है – चाहे वह कितना भी छोटा क्यों न हो – वह ईश्वर को प्रिय हो जाता है। कर्म की पवित्रता केवल उसकी भव्यता में नहीं, बल्कि उसके पीछे के भाव में होती है। यदि हम हर कार्य को ईश्वर को समर्पित करके करें, तो वह स्वयं शुद्ध हो जाता है।
महाराज जी आगे बताते हैं कि ब्रह्मा जी भी प्रार्थना करते हैं – “नतोऽस्मि ते पदम्” – अर्थात “हे प्रभु! मैं आपके चरणों में सिर झुकाता हूं।” परंतु यह सिर झुकाना केवल शारीरिक क्रिया नहीं है। सच्चे प्रणाम में प्राण, बुद्धि, इंद्रियाँ और आत्मा – सबका समर्पण होना चाहिए।
केवल शरीर को झुकाने से सच्चा प्रणाम नहीं होता, बल्कि जब हमारा मन, हमारी बुद्धि और आत्मा भी परमात्मा के चरणों में समर्पित हो जाएं, तभी वह प्रणाम पूर्ण होता है।
स्वामी जी कहते हैं कि बुद्धि से समर्पण करना सबसे कठिन है क्योंकि मनुष्य के भीतर किसी न किसी चीज़ का गर्व रहता है – कोई कहता है मैं पंडित हूं, कोई कहता है मैं सौंदर्यवान हूं, कोई धनवान या प्रतिष्ठित होने का अभिमान रखता है। यह अहंकार ही समर्पण में सबसे बड़ी बाधा है। लेकिन जिसने यह समझ लिया कि सच्ची बुद्धिमत्ता उसी में है जहां बुद्धि भी परमात्मा को समर्पित हो जाए, वही व्यक्ति वास्तव में ज्ञानी है।
ध्यान, योग और जीवन का वास्तविक उद्देश्य
आगे चलकर स्वामी जी ने ध्यान और योग के माध्यम से शरीर और प्राण के संयम की बात कही। उन्होंने खेचरी मुद्रा का उदाहरण दिया, जहां जीभ को तालू से लगाकर जब प्राणायाम किया जाता है, तो शरीर को उतना ही प्राण मिलता है जितना जरूरी है और बाकी प्राण ध्यान में, ईश्वर की उपासना में उपयोग होता है।
जब साधक इस अवस्था में पहुंचता है, तो वह देह से ऊपर उठ जाता है और उसकी चेतना केवल परमात्मा में स्थित हो जाती है।
निष्कर्ष – हर कर्म को ईश्वर को समर्पित करें
अंततः महाराज जी का संदेश यही है कि हमारे जीवन का हर कार्य, हर विचार और हर भावना परमात्मा को समर्पित हो। यदि हमारे मन में यह भावना आ जाए कि "जो भी कर रहा हूं, वह ईश्वर के लिए है", तो हमारा हर कर्म पूजा बन जाता है। फिर चाहे वह रसोई बनाना हो, सफाई करना हो, उपदेश देना हो या ध्यान लगाना – सब कुछ ईश्वरार्पण हो सकता है। और यही वास्तविक भक्ति है।
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