यज्ञ क्या है | Yagya Kya Hai | Swami Satyamitranand ji Maharaj | Adhyatm Ramayan | Pravachan
भारत माता की इस प्रस्तुति में परम पूज्य स्वामी सत्यमित्रानंद गिरिजी महाराज ने यज्ञ के वास्तविक स्वरूप और उसके आध्यात्मिक मर्म को बहुत ही सुंदर और सारगर्भित रूप में समझाया है। उन्होंने बताया कि यज्ञ का अर्थ केवल हवन करना नहीं है। हां, आपने जो अग्नि में आहुतियाँ दी हैं — वह यज्ञ का एक अंग अवश्य है, लेकिन यज्ञ का व्यापक और गूढ़ अर्थ है — समर्पण भाव से किया गया कर्म।
यज्ञ वह है जिसमें अपने सारे कर्म, अपना अहंकार, अपनी स्वामित्व की भावना — सब कुछ ईश्वर को समर्पित कर दिया जाए। जब आचार्य मंत्र उच्चारण करते हैं — "इदं सूर्याय नमः", "इदं अग्नये नमः", तो वे बार-बार स्मरण कराते हैं कि घी आपका है, सामग्री आपकी है, परिश्रम आपका है, यज्ञशाला आपकी है, लेकिन फिर भी यह सब कुछ "मेरा नहीं है" — इदं न मम — यह भाव ही यज्ञ का मूल है।
गीता और यज्ञ का आधार: कर्म
स्वामीजी ने यह भी स्पष्ट किया कि यज्ञ का आधार है — कर्म। गीता में कहा गया है — "कर्मणो न त्र लोकोऽयं कर्म बन्धनः", अर्थात यह संसार कर्म से ही चलता है, लेकिन जब उस कर्म में व्यक्ति अपनी “मैं” और “मेरा” की भावना जोड़ देता है, तब वही कर्म बंधन बन जाता है। इसलिए यज्ञ का उद्देश्य है — कर्म को बंधन से मुक्त करना और उसे परमात्मा को समर्पित करना। यह समर्पण भाव ही व्यक्ति को मुक्त करता है और जीवन को दिव्यता से जोड़ता है।
कमल के उदाहरण से जीवन का सन्देश
कमल के उदाहरण से स्वामीजी ने बताया कि जीवन में हमें कैसे निर्लिप्त रहना है। कमल जल में रहकर भी जल से प्रभावित नहीं होता। उसका पत्ता चाहे जितने जल में डूबा हो, उस पर जल टिकता नहीं।
कमल जल के प्रति कृतज्ञ रहता है, लेकिन उसकी अधीनता स्वीकार नहीं करता। वह कहता है — “तुम मुझे जीवन, सौंदर्य, पोषण दे रहे हो — इसके लिए मैं कृतज्ञ हूं। लेकिन मैं जो कुछ भी कर रहा हूं, वह भगवान को अर्पण करने के लिए कर रहा हूं, तुम्हारे लिए नहीं।” यही भाव हमें अपने कर्मों में रखना चाहिए — कृतज्ञता हो, लेकिन पराधीनता नहीं। कर्म करें, लेकिन भगवान के लिए, न कि संसार के प्रभाव में आकर।
पाप, भय और ईश्वर की उपस्थिति
स्वामीजी ने यह भी बताया कि संसार का सबसे बड़ा भय व्यक्ति को किसी और से नहीं, बल्कि स्वयं से होता है। जब हम कोई कर्म छुपाकर करते हैं — तो मन में डर उत्पन्न होता है कि समाज, परिवार, भगवान या कोई अन्य जान जाएगा। यही भय, उसी छिपे हुए पाप का संकेत होता है।
लेकिन जो व्यक्ति सदा ईश्वर की उपस्थिति को अनुभव करता है, वह पाप की ओर प्रवृत्त हो ही नहीं सकता। इसलिए हमें हर कर्म करते समय यह विचार करना चाहिए — क्या यह भगवान को समर्पण योग्य है? यदि नहीं, तो हमें उसे करने से पहले विचार करना चाहिए।
कथा: कर्म का सच्चा स्वरूप
एक कथा के माध्यम से स्वामीजी ने कर्म के सच्चे स्वरूप को बताया। एक वृद्धा, जो गौशाला में गोबर उठाती थी, उसने नारदजी से पूछा कि वह अपने कर्म को कैसे पवित्र बना सकती है। नारदजी ने कहा — “जो कुछ भी करो, श्रीकृष्णार्पणमस्तु कहकर समर्पित कर दो।”
वृद्धा ने वैसा ही किया। एक दिन भगवान श्रीकृष्ण ने देखा कि उनके वस्त्रों पर गोबर लगा है और नारदजी से कहा कि यह क्या हुआ। जब नारदजी ने उस वृद्धा को डांटा, तब भी उसने वही कहा — “श्रीकृष्णार्पणमस्तु।” भगवान मुस्कराए और बोले — “आज तो गाल भी लाल हो गया, लेकिन उस वृद्धा का समर्पण भाव मुझे अर्पण हो गया।”
निष्कर्ष: यज्ञ का सच्चा अर्थ
अंत में स्वामीजी ने निष्कर्ष रूप में बताया कि यज्ञ का अर्थ है — प्रत्येक कर्म को भगवान को समर्पित करना। प्रवचन देना यज्ञ है, भोजन बनाना यज्ञ है, बच्चों को संस्कार देना यज्ञ है, स्वच्छ जीवन जीना यज्ञ है।
यदि हमारा हर कर्म भगवान के प्रति समर्पण भाव से किया जाए, तो वह न केवल पवित्र होता है, बल्कि हमें बंधन से मुक्त भी करता है। गीता में कहा गया है —
"ब्रह्मण्य धाय कर्मण संगं त्यक्त्वा करोति य: लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवांभसा",
अर्थात जो व्यक्ति परमात्मा को समर्पित होकर, आसक्ति त्यागकर कर्म करता है, वह पाप से उसी प्रकार अछूता रहता है जैसे कमल का पत्ता जल में रहकर भी जल से अछूता रहता है।
इसलिए कर्म करें — पर समर्पणपूर्वक, सेवा भाव से, अहंकार रहित होकर। यही यज्ञ है, यही धर्म है, यही जीवन की सच्ची साधना है।
और अधिक जानकारियों के लिए देखें: भारत माता ऑनलाइन
हमारे प्रवचन और वीडियो सुनें: Bharat Mata YouTube Channel