गीता ज्ञान यज्ञ श्री हरिहर मारूती धाम (2011) भाग- 5 | Geeta Gyan Yagya Sri Harihar Maruti Dhaam 2011
गीता ज्ञान यज्ञ श्री हरिहर मारूती धाम (2011) भाग- 5 | Geeta Gyan Yagya Sri Harihar Maruti Dhaam 2011
स्वामी सत्यामित्रानंद गिरि जी महाराज का गीता ज्ञान
स्वामी सत्यामित्रानंद गिरि जी महाराज प्रस्तुत वीडियो में ब्रह्मलीन स्वामी सत्यमित्रानंद गिरि जी महाराज भगवत गीता की महिमा का बखान कर रहे हैं। स्वामी जी कह रहे हैं कि जिस तरह चंदन का लेप शीतल होता है, वैसे ही गीता का ज्ञान भी शीतल होता है। चंदन का लेप सूखने पर हम उसे गिला करने या सूखे लेप को हटाने का प्रयास करते हैं। लेकिन गीता के ज्ञान के साथ ऐसा नहीं है, इसलिए गीता की चंदन के लेप के साथ उपमा देना ठीक नहीं है। क्योंकि गीता तो निर्लेप है। वह अज्ञानरूपी लेप को छुड़ाने का प्रयास करती है। गीता आसाक्ति को दूर करने का संदेश बार-बार देती है। हम संसार को देखते हुए भी उतना ही ग्रहण करते हैं जितना हमारे लिए कल्याणकारी है। गीता भगवान कृष्ण का प्रसाद है। इस प्रसाद का एक कण भी किसी को भी मिल जाए वह तृप्त हो जाएगा।
स्वामी सत्यमित्रानंद गिरि जी महाराज की प्रेरणा
जब-जब मैं उपासना के क्षणों में परमात्मा के चरणों में बैठता हूँ, तब-तब मेरी यही प्रार्थना रहती है की परमात्मा मेरे राष्ट्र को सर्वविधि समृद्ध एवं सम्पन्न बना दें। यह कथन है स्वामी सत्यमित्रानंद गिरी जी महराज का जिन्होंने हरिद्वार के भारतमाता मन्दिर की स्थापना की। पथ-प्रदर्शक, अध्यात्म-चेतना के प्रतीक, तपो व ब्रह्मनिष्ठ, पद्मभूषण महामंडलेश्वर स्वामी सत्यमित्रानंद गिरि का जन्म 19 सितंबर 1932 को आगरा में हुआ था। मूल रूप से इनका समस्त परिवार उत्तर प्रदेश के सीतापुर का निवासी था। स्वामी जी बचपन से ही अध्ययनशीलता, चिंतन और सेवा का पाठ पढ़ते थे और सदैव लक्ष्य के प्रति सजग एवं सक्रिय रहते थे। धर्म, संस्कृति, समाज और विश्व कल्याण के प्रति अपनी अद्वितीय सेवाओं के लिए उन्हें पद्मभूषण से सम्मानित किया गया।
स्वामी जी के अद्भुत उपदेश
स्वामी जी ने अपने एक प्रवचन में कहा था कि कभी कभी जीवन के पथ पर जब विषाद रुपी कंटक आ जाता है, तब मनुष्य उन्माद में भटक जाता है। ऐसे स्थिति में किंकर्तव्यविमुढ़ता कर्म की शक्ति का हरण कर लेती है और प्रमाद मनुष्य को दिग्भ्रमित कर देता है। महाभारत की रणभूमि में श्रेष्ठ धनुर्धर अर्जुन भी इसी भंवर में फँस गए थे। जो वर्तमान में भी संसार में देखने को मिल जाता है। और जिस प्रकार अर्जुन को श्रीमद्भागवद्गीता द्वारा अपने कर्तव्य का बोध हुआ था, उसी प्रकार गीता आज के समय में भी अत्यंत आवश्यक संदेश प्रदान करती है। विषाद, उन्माद, प्रमाद और इन सबसे उत्पन्न विवाद से बचना है तो संवाद की रचना अनिवार्य है। क्योंकि संवाद से विवाद पूर्णतः नष्ट हो जाएगा। परमात्मा के साथ संवाद करने के पश्चात अर्जुन के मन में विवाद का स्थान ही ना रहा और संवाद ने धन्यवाद की रचना की। श्रीमद्भगवद्गीता इसी धन्यवाद की परंपरा की स्थापना का संदेश प्रदान करती है, जिससे मानवमात्र का कल्याण हो सके।
जीवन की गहराई
परमात्मा का आश्रय हर संकट नष्ट कर देता है। इसीलिए जीवन में विषाद होने पर केवल परमात्मा से संवाद ही मनुष्य को उबार सकता है। जीवन को सरिता के समान वर्णित करते हुए स्वामी जी कहते हैं कि जीवन सरिता के समान ही प्रवाहमान रहता है, जिसका उद्भव होता है, एवं जीवनकाल के पश्चात् अवसान भी होता है। जिस प्रकार सरिता ऊँचाई तक जाती है और फिर नीचे की ओर चली जाती है, उसी प्रकार जीवन भी उन्नति एवं अवनति के चक्र में चलायमान रहता है। अतः जीवन रुपी सरिता में कभी भी सब कुछ समान नहीं रहता। केवल ईश्वरीय भक्ति रुपी प्रसाद ही अटल एवं अलौकिक सत्य है और इस सत्य को आत्मसात करने से और सत्कर्म करने से ही चौरासी लाख योनियों में भ्रमण करने के पश्चात् मानव जीवन की प्राप्ति हो सकती है।
स्वामी जी के जीवन का संदेश
उपनिषद के अनुसार असत्य आचरण से युक्त मनुष्य का जीवन अंधकारमय हो जाता है और इस संसार से अवसान के पश्चात भी उन्हें केवल अंधकार की ही प्राप्ति होती है। जिस मार्ग पर चलने के लिए बुद्धि कहे, किन्तु मन और आकर्षण बुद्धि के विपरीत ही रहें, ऐसे क्षणों में यदि बुद्धि को पराजित करके आकर्षण विजय प्राप्त करता है, तो यही क्षण मानव जीवन के आत्महत्या के क्षण होते हैं। इन क्षणों की निरंतर वृद्धि ही मानव के पतन का कारण बनती है और अपयश के कारक के रूप में सन्मार्ग की बाधा बन जाती है।
हमारे प्रेरणास्त्रोत स्वामी सत्यमित्रानंद गिरि जी
परम पूजनीय स्वामी सत्यमित्रानंद गिरी जी महराज के समस्त संदेशों व उपदेशों से हम सदा सर्वदा प्रेरित होते रहेंगे।
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