नियमित साधना क्यों करना चाहिए | Swami Satyamitranand Giri ji Maharaj | Adhyatm Ramayan Pravachan

भारत माता की इस प्रस्तुति मे स्वामी सत्यमित्रानंद गिरी जी महाराज बताते हैं कि एक बार स्वामी विवेकानंद जी ने रामकृष्ण परमहंस जी से पूछा कि जब आपने माँ काली का दर्शन बहुत पहले ही कर लिया है, तो अब भी आप हर दिन सुबह-शाम आंखें बंद करके ध्यान क्यों करते हैं? आप तो परमहंस हैं, फिर यह नियमित साधना किसलिए? यह प्रश्न संभवतः विवेकानंद जी ने अपने साथ आए नवदीक्षित संन्यासियों को शिक्षित करने के उद्देश्य से किया था।

साधना की आवश्यकता: लोटे का प्रतीकात्मक उदाहरण

रामकृष्ण जी ने उत्तर देने के लिए एक व्यावहारिक उदाहरण चुना। उन्होंने कहा कि वे शास्त्र नहीं पढ़े, इसलिए शास्त्रीय भाषा में उत्तर नहीं दे सकते, लेकिन उनके पास एक पूजा का लोटा है और वैसा ही एक लोटा कोठार से लाने को कहा। जब दोनों लोटे सामने रखे गए तो पाया गया कि दोनों की धातु, निर्माण की तारीख और फैक्ट्री एक ही थी, फिर भी एक लोटा चमक रहा था और दूसरा काला था। जब पूछा गया क्यों, तो उत्तर मिला कि एक को रोज मांजा जाता है, दूसरे को नहीं। तब रामकृष्ण जी ने कहा कि यही कारण है कि व्यक्ति को रोज साधना करनी चाहिए ताकि उसका हृदय निर्मल बना रहे और उस पर अहंकार या मलीनता की परत न चढ़े। रामकृष्ण जी ने समझाया कि परमात्मा का दर्शन बहुत कम लोगों को होता है, जैसे मीरा, तुलसी, सूरदास आदि, क्योंकि पूर्ण समर्पण कठिन है और सामान्यतः मनुष्य में कहीं न कहीं अहंकार रह ही जाता है। एक साधु ने एक दिन भंडारे की शिकायत की कि चावल कच्चे रह गए थे। रामकृष्ण जी ने उस घटना से भी साधना का संदेश निकाला और बताया कि जैसे चावल पकता है वैसे ही साधना से मनुष्य का अंतःकरण पकता है, उसके दोष गलते हैं, और वह सिद्ध होता है।

अध्यात्म रामायण में जानकी जी का दृष्टिकोण

साधना से आत्मा की पक्वता आती है, वरना जीवन अधपका ही रह जाता है। उन्होंने परमात्मा को स्वप्रकाश बताया — जो स्वयं प्रकाश है और जिसके लिए किसी अन्य प्रकाश की आवश्यकता नहीं होती। जब व्यक्ति विवेक की रोशनी में अपने भीतर झांकता है, तब वही परमात्मा उसे दिखाई देता है, क्योंकि वह न केवल संसार का बल्कि आत्मा का भी प्रकाशक है। जानकी जी अध्यात्म रामायण में कहती हैं कि वे प्रकृति की मूल हैं, लेकिन संसार की रचना, पालन और संहार केवल परमात्मा की सन्निधि और इच्छा से होता है। भगवान स्वयं अक्रिय हैं लेकिन माया के माध्यम से कार्य करते प्रतीत होते हैं।

अध्यात्म रामायण में वनवास की अनूठी कथा

एक विशेष बात जो अध्यात्म रामायण में मिलती है वह यह है कि विवाह के बाद जानकी जी 12 वर्षों तक राम जी के साथ अयोध्या में रहीं, और उसके बाद ही वनवास गया, जो कि अन्य रामायणों में स्पष्ट नहीं है। इसके बाद के प्रसंगों में विराध, मारीच, सीता हरण, रावण वध, विभीषण राज्याभिषेक, और पुष्पक विमान से अयोध्या वापसी जैसे प्रसंग आते हैं। इन प्रसंगों में कई वैज्ञानिक संकेत भी मिलते हैं, जैसे कि आकाश से अग्नि की वर्षा और जल की धाराओं द्वारा उन्हें शमित करना, जो आज के विज्ञान के लिए भी चुनौती है। इससे स्पष्ट होता है कि रामायण काल में भारत आध्यात्मिक रूप से ही नहीं, वैज्ञानिक दृष्टि से भी अत्यंत उन्नत था। साधना, विज्ञान, और ईश्वर साक्षात्कार — तीनों को एक सूत्र में पिरोते हुए यह कथा हमें यह सिखाती है कि आत्मा को स्वर्ण के समान चमकाने के लिए नित्य साधना आवश्यक है, क्योंकि परमात्मा का अनुभव केवल निर्मल और अहंकारविहीन हृदय में ही संभव है।

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