श्रीमद भागवत गीता सार | श्री हरिहर मरुती धाम | भाग 3

श्रीमद भागवत गीता सार | श्री हरिहर मरुती धाम | भाग 3 | Bharat Mata

देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः।
परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ।।
स्वामी जो कहते हैं की सुख के मार्ग पर हम किसी को अपना साथी बनाए या ना बनाये परंतु कल्याण के मार्ग पर अवश्य बनाना चाहिए। 
लभन्ते ब्रह्रानिर्वाणमृषय: क्षीणकल्मषा: ।
छित्रद्वेधा यतात्मान: सर्वभूतहिते रता: ।।
जिनके सब पाप नष्ट हो गये हैं, जिनके सब संशय ज्ञान के द्वारा निवृत्त हो गये हैं, जो सम्पूर्ण प्राणियों के हित में रत हैं और जिनका जीता हुआ मन निश्चल भाव से परमात्मा में स्थित है, वे ब्रह्रावेत्ता पुरुष शान्त ब्रह्रा को प्राप्त होते हैं। 
हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम् ।
तस्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चयः ॥
स्वानतः सुखाय तुलसी रघुनाथ गाथा |
भाषा निबद्ध मति मंजुल मातनोति ||
संत मिलन सम सुख जग नाहीं॥ 
पर उपकार बचन मन काया। 
संत सहज सुभाउ खगराया॥ 
“जगत में दरिद्रता यानी गरीबी के समान कोई दुख नहीं है तथा संतों के मिलने के समान जगत में कोई सुख नहीं है।“
श्रीमद भागवत गीता में सुख और हित के अंतर को बताया गया है।  हम सभी को कल्याण के लिए हित के मार्ग पर चलना चाहिए, क्योंकि जब इंसान पूर्वाग्रह को ग्रहण कर लेता है तो उसे दूसरों के सद्गुण दिखाई नहीं देते हैं, उसे अपनी वस्तु ही श्रेष्ठ और दूसरों की वस्तु से पीड़ा होती है | हरिहर मारुति धाम में स्वामी सत्यमित्रानन्द गिरि जी महाराज सिद्धांत की इसी महत्ता को वर्णित कर रहे हैं।

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