Subhas Chandra Bose Jayanti

1947..  तारीख़ के पन्नों पर वो ख़ुशी का पल लेकर आया.. जिसका इंतज़ार हर हिन्दुस्तानी को था! आज़ाद हिंदुस्तान का सपना अब हक़ीक़त में तब्दील हो चुका था.. लेकिन इस आज़ादी को हासिल करने में न जाने कितने वतनपरस्तों ने अपना सब कुछ वतन पर कुर्बान कर दिया

ऐसी ही एक वतनपरस्त और बेख़ौफ़ आज़ादी की मशाल का नाम था – सुभाष चन्द्र बोस।

स्वतंत्रता के लिए भारत के संघर्ष के इतिहास में.. सुभाष चन्द्र बोस सभी विशिष्टताओं में और स्वयं ही एक क्रांति के रूप में सुशोभित हैं। एक ऐसी क्रांति जो भारत तक ही सीमित नहीं रही.. अपितु विश्व को भी स्वतंत्रता संग्राम में समिल्लित कर लिया। जीवन सिद्धांत में.. विचारधारा में.. दृढ विश्वास में.. अनुपम साहस में.. समकालीन इतिहास में.. सुभाष चंद्र बोस अपने संपूर्ण व्यक्तित्व में बीसवीं सदी के भारत की एक अद्वितीय गाथा हैं

देशप्रेम और वीरता की ये गाथा आरम्भ होती है 23 जनवरी 1897 को जब ओडिशा में कटक के एक संपन्न बंगाली परिवार में जन्म होता है.. सुभाष चन्द्र बोस का। उनका जन्म 1857 की आरम्भ हुई स्वतंत्रता क्रांति और 1947 में प्राप्त हुई स्वतंत्रता तक की यात्रा का मध्य-बिंदु था। कौन जानता था कि सुभाष इस यात्रा का महत्वपूर्ण सारथी बनेगा!

रायबहादुर की उपाधि से सम्मानित.. प्रसिद्ध वकील जानकीनाथ बोस एवं धार्मिक माता प्रभावती देवी के घर जन्म लेने वाला.. ये बालक अत्यंत मेधावी और बुद्धिमान था। कलकत्ता के प्रेसीडेंसी कॉलेज से दर्शनशास्त्र का अध्ययन करने के पश्चात्.. युवा सुभाष को उनके माता-पिता ने इंग्लैंड के कैंब्रिज विश्वविद्यालय.. भारतीय प्रशासनिक सेवा की तैयारी के लिए भेज दिया.. जिसमें उन्होंने चौथा स्थान अर्जित किया.. किन्तु देश में हो रहे ब्रिटिश सरकार के अत्याचार और भारत को पराधीनता की बेड़ियों में न देख सकने के कारण.. उन्होंने ब्रिटिश सरकार में सेवक बनना अस्वीकार कर दिया और वे भारत आकर अंग्रेज़ों के विरुद्ध स्वाधीनता आन्दोलन में संलग्न हो गए और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से जुड़ गए।

गांधीजी के अहिंसा के मार्ग से सुभाष सहमत नहीं थे और स्वाधीनता प्राप्ति के लिए क्रांति का होना आवश्यक मानते थे.. फिर भी उनके मन में गांधीजी के प्रति अत्यधिक सम्मान था। सुभाष ने ही गांधीजी को सर्वप्रथम राष्ट्रपिता की उपाधि से संबोंधित किया था।

अपने राजनैतिक गुरु चित्तरंजन दास के मार्गदर्शन और अपने कौशल के बल पर.. सुभाष कांग्रेस के मुख्य नेताओं की श्रेणी में आ चुके थे.. किन्तु पूर्ण स्वराज के समर्थन और अंग्रेज़ों को 6 महीने में देश छोड़ने की चेतावनी देने पर गांधी जी ने उनका विरोध किया.. फलस्वरूप सुभाष ने अध्यक्ष पद को त्याग दिया और ‘फॉरवर्ड ब्लॉक’ की स्थापना की।

इस समय द्वितीय विश्वयुद्ध आरम्भ हो चुका था और सुभाष अंग्रेज़ों द्वारा भारत के संसाधनों का युद्ध में उपयोग किये जाने का विरोध कर रहे थे। उन्होंने जन-आन्दोलन आरम्भ कर दिया जिसमें उन्हें भारतवासियों का अभूतपूर्व समर्थन प्राप्त होने लगा। इससे भयभीत होकर अंग्रेज़ों ने उन्हें कोलकाता में उनके घर पर नज़रबंद कर दिया। ब्रिटिश सरकार का विरोध करने पर.. अपने जीवन में कई बार कारावास जा चुके सुभाष को नज़रबंद रहने का भय नहीं था.. किन्तु स्वाधीनता प्राप्त करने के लिए उनका वहां से निकलना अत्यंत आवश्यक था। जनवरी 1941 में सुभाष अंग्रेज़ों को चकमा देते हुए.. भारत से निकलकर अफ़ग़ानिस्तान के रास्ते जर्मनी पहुँच गए।

भारत से ब्रिटिश साम्राज्य को समाप्त करने के लिए.. सुभाष ने जर्मनी में भारतीय स्वतंत्रता संगठन और आज़ाद हिन्द रेडियो की स्थापना की। सुभाष हर संभव सहायता प्राप्त करने के सारे प्रयास कर रहे थे.. इसी क्रम में पूर्वी एशिया पहुंचकर उन्होंने वयोवृद्ध क्रन्तिकारी रासबिहारी बोस से भारतीय स्वतन्त्रता परिषद का नेतृत्व सँभाला। सुभाष के व्यक्तित्व एवं देशभक्ति से प्रभावित होकर.. जापान की तत्कालीन सरकार ने उन्हें सहयोग करने का आश्वाशन दिया सुभाष ने जापानी सेना द्वारा अंग्रेज़ी फ़ौज से पकड़े हुए भारतीय युद्धबन्दियों को लेकर आज़ाद हिन्द फ़ौज की स्थापना की और तब सुभाष को नेताजी कहा जाने लगा।

“तुम मुझे ख़ून दो.. मैं तुम्हें आज़ादी दूंगा!”

नेताजी के इस नारे ने . आज़ाद हिन्द फ़ौज