तात्या टोपे - 1857 की क्रांति में अंग्रेजों को भयभीत करने वाले नायक | Tatya Tope Biography In Hindi
प्राचीनकाल से ही इसकी समृद्धता केवल इसकी संस्कृति और धार्मिक सद्भावना से ही नहीं रही है अपितु यहाँ की सम्पन्न राजव्यवस्था ने इस देश को सोने की चिड़िया की उपाधि से विभूषित किया है। भारत हमेशा से ही सम्पूर्ण विश्व में चर्चा का विषय रहा है। बात चाहे यहाँ की गौरवशाली संस्कृति की हो, या महान ऋषियों की हो, या फिर यहाँ की वैभव संपदा और दयावान राजाओं की, हर पहलू पर भारत देश शीर्ष पर रहा है। भारत की इसी वैभव संपदा और गौरवशाली संस्कृति के कारण ही मुग़ल और ब्रिटिश जैसे विदेशी आक्रान्ता भारत की ओर आकर्षित हुए और भारत की “अतिथि देवो भवः” संस्कृति का लाभ लेकर अति सरलता से भारत में आ कर बस गए। लेकिन मुग़लों की तरह ही, भारतवासियों ने एकजुट होकर भारत से ब्रिटिश शासन का भी अंत किया। स्वतंत्रता के इस महासंग्राम में अनेकों महत्वपूर्ण बलिदान हुए। आज हम इन्हीं बलिदानों में से एक अतिमहत्वपूर्ण बलिदान देने वाले वीर सेनानी, तात्या टोपे के बारे में विस्तार से जानने वाले हैं।
तात्या टोपे का प्रारम्भिक जीवन
16 फरवरी सन 1814 में महाराष्ट्र के नासिक जिले के छोटे से गाँव येवला में जन्मे तात्या टोपे 1857 की क्रांति के एक अविश्वसनीय क्रांतिकारी रहे हैं। पांडुरंग त्र्यंबक भट और रुक्मिणी बाई के ब्राह्मण पुत्र तात्या टोपे का 1857 में हुए भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में अत्यंत महत्वपूर्ण योगदान रहा है।
तात्या नाम से प्रसिद्ध तात्या टोपे का वास्तविक नाम रामचंद्र पांडुरंग येवलकर शायद ही कोई जानता होगा। इनके पिता, पेशवा बाजीराव द्वितीय के धर्मदाय विभाग के प्रमुख थे जहां उन्हें अपनी कर्तव्यपरायणता के कारण राज्यसभा में बहुमूल्य नवरत्न जड़ित टोपी देकर सम्मानित किया गया था। इस वजह से पांडुरंग राव भट्ट को टोपे की उपाधि दी गई। तदन्तर ये उपनाम तात्या टोपे के साथ भी जुड़ गया। तात्या टोपे की प्रारम्भिक शिक्षा रानी लक्ष्मीबाई के साथ हुई। बड़े होने पर इन्होंने पेशवा बाजीराव के राज्य में मुंशी का पदभार संभाला।
1857 के विद्रोह में तात्या टोपे की भूमिका
1857 में जब अंग्रेजों ने कानपुर पर अपना अधिकार जमाया, तब तात्या टोपे ने 20 हज़ार सैनिकों का नेतृत्व करके अंग्रेज सेनापति विन्धम तथा कैम्पवेल को परास्त करके कानपुर छोड़ने के लिए मजबूर कर दिया। उसके बाद तात्या टोपे रानी लक्ष्मीबाई के साथ मिलकर भारत की स्वतंत्रता के लिए संगठित हो गए।
1858 में जब झांसी में अंग्रेजों के विरुद्ध क्रांति की ज्वाला जली, तब रानी लक्ष्मीबाई ने तात्या टोपे से सहायता के लिए सेना की मांग की। सेना की कोशिशें असफल होने की वजह से मणिकर्णिका और तात्या टोपे ने ग्वालियर के किले में ठहर कर नई सेना का निर्माण प्रारंभ किया। जून 1858 में तात्या टोपे के नेतृत्व में अंग्रेजों के विरुद्ध लड़े गए इस युद्ध में रानी लक्ष्मीबाई शहीद हो गईं।
अदम्य साहस का परिचय देते हुए तात्या टोपे इस हार से डरे नहीं। अपनी कुशल गुरिल्ला युद्ध नीति के बल पर उन्होंने अनेकों बार अंग्रेजों से लोहा लिया और उनसे बच निकलने में सफल हुए। तदन्तर, अपनी सेना को इंदौर ले जाते हुए तात्या टोपे को अंग्रेजों ने रोक लिया। उन्होंने युद्ध न करके बच निकलने के कुछ विफल प्रयासों के बाद अंततः जयपुर में शरण ली। जयपुर में उन्होंने अपने विश्वासपात्र मित्र नरवर के राजा मानसिंह के साथ रहने का निर्णय लिया। यहाँ अंग्रेजों ने अपनी बहुचर्चित “फूट डालो और राज करो” की रणनीति अपनाई और मानसिंह को ग्वालियर के राजा की मित्रता का झांसा देकर धोखे से मानसिंह से तात्या टोपे का सौदा कर लिया। अंग्रेजों ने 18 अप्रैल 1859 को शिवपुरी में तात्या टोपे की हत्या कर दी।
तात्या टोपे: भारतीय स्वतंत्रता सेनानियों का साहस
सदा से निर्भीक तथा साहसी रहे तात्या टोपे को ब्रिटिश सरकार कभी पकड़ नहीं पाई। भारतीय इतिहास के एक शूरवीर और प्रतिभाशाली योद्धा तात्या टोपे ने भारत माता की स्वतंत्रता में अपना सारा जीवन समर्पित कर दिया। आगामी युग के लिए वीरता की मिसाल बने ऐसे वीर योद्धा तात्या टोपे को भारत समन्वय परिवार की ओर से कोटि कोटि प्रणाम। धर्म तथा संस्कृति के प्रकाश से आपको निरंतर आलोकित करने के लिए हम सतत प्रयासरत हैं।
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