वीर सावरकर का अनुपम त्याग | Veer Savarkar के हिंदुत्व की कहानी | Bharat Mata

स्वातंत्र्य गर्व उनका, जो नर फाकों में प्राण गंवाते हैं ,

पर, नहीं बेच मन का प्रकाश रोटी का मोल चुकाते हैं ।

स्वातंत्र्य गर्व उनका, जिनपर संकट की घात न चलती है ,

तूफानों में जिनकी मशाल कुछ और तेज़ हो जलती है ।

स्वातंत्र्य वीर होने की सभी शर्तों पर उत्तीर्ण होंने वाला यदि  कोई एक ऐसा व्यक्तित्व है जिन्होंने स्वतंत्रता के संघर्ष का बिगुल फूँका तो वो है वीर सावरकर,स्वातंत्र्य वीर ,वीर सावरकर| वीर सावरकर का स्वतंत्रता के उस रणयुद्ध में बहुमूल्य योगदान रहा है|सावरकर भारत के महान क्रांतिकारी, स्वतंत्रता सेनानी, समाजसुधारक, इतिहासकार, राष्ट्रवादी नेता तथा विचारक थे।उन्होंने आजीवन देश की स्वतंत्रता के लिए संघर्ष किया| 

वीर सावरकर का मूल नाम विनायक दामोदर सावरकर था| उनका जन्म 28 मई 1883 को वर्तमान महाराष्ट्र के नासिक जिले के भागूर गांव में एक चितपावन ब्राह्मण परिवार में हुआ था। जब वे केवल नौ वर्ष के थे तभी हैजे की महामारी में उनकी माता जी का देहान्त हो गया। इसके सात वर्ष बाद सन् 1899 में प्लेग की महामारी में उनके पिता जी भी स्वर्ग सिधारे। इसके बाद विनायक के बड़े भाई गणेश ने परिवार के पालन-पोषण का कार्य सँभाला। 

सन् 1901 में सावरकर ने मैट्रिक की परीक्षा पास की, बचपन से ही सावरकर की पढ़ाई में अत्यधिक रुचि थी तथा उन दिनों उन्होंने कुछ कविताएँ भी लिखी थी, आर्थिक संकट होने के बावजूद उनके बड़े भाई गणेश ने उनकी पढ़ाई की इच्छा का समर्थन किया| वर्ष 1902 में स्नातक करने के लिए उन्होंने पुणे के फरग्यूसन कॉलेज में दाखिल लिया| इस अवधि में विनायक ने स्थानीय नवयुवकों को संगठित करके मित्र मेलों का आयोजन किया। बाद में, उन्होंने मित्र मेला को ‘अभिनव भारत’ बुलाया और यह घोषित किया कि भारत को स्वतंत्र होना चाहिए। जून 1906 में, वीर सावरकर वकील बनने के लिए लंदन चले गए।उन्होंने भारत के स्वतंत्रता संग्राम पर आधारित ‘1857 का स्वातंत्र्य समर’ नामक एक किताब लिखी, जिस पर अंग्रेजों ने प्रकाशन से पहले ही रोक लगा दी, उन्होंने अंग्रेजों से भारत को मुक्त करने के लिए हथियारों के इस्तेमाल की वकालत की और हथियारों से सुसज्जित इंग्लैंड में भारतीयों का एक नेटवर्क बनाया। 

सावरकर ने पूर्ण भारतीय स्वतंत्रता के संदर्भ में एक पुस्तक भी प्रकाशित की, 1857 के भारतीय विद्रोह के बारे में भी उन्होंने “द इंडियन वार ऑफ इंडिपेंडेंस” नामक पुस्तक प्रकाशित की जिसे ब्रिटिश अधिकारियों ने प्रतिबंधित कर दिया था|

अंग्रेजों की हो रही हत्याओं का राचाईता होने के बेबुनियादी अपराध में सावरकर को सजा सुनाई गई| इंडिया हाउस के साथ उनके संबंध का हवाला देते हुए उन्हें हत्याकाण्ड में फंसा लिया| सावरकर को 13 मार्च 1910 को लंदन में को गिरफ्तार कर लिया गया और भारत भेज दिया गया।

अंग्रेज सरकार के न्यायहीन शासन ने सावरकर को क्रांति के अपराध में कालापानी की सजा सुना दी| कालापानी वो सजा है जो साधारण विद्रोहियों और अपराधियों को नहीं दी जाती, यह सजा सिर्फ वीभत्स श्रेणी के लोगों को ही दी जाती है|

अटल विहारी वाजपाये जी ने लिखा था-

जो बरसों तक सढ़े जेल में उनको याद करें ,

जो फांसी पर चढ़े खेल में उनको याद करें,

याद करें कालापानी को अंग्रेजों की मनमानी को,

कोल्हू में जुट तेल पेरते, सावरकर से बलिदानी को| 

भारत पहुँच कर सावरकर पर फिर से मुकदमा शुरू हुआ और  उन्हे दो जन्मों के लिए आजीवन कारावास जैसी असाध्य सजा दे दी गई| ऐसा पहले कहीं और कभी भी नहीं हुआ, सजा सुन्ने के बाद सावरकर हस कर बोले “चलो अच्छा ही है ब्रिटिश ने मुझे दो जनमों की आजीवन कारावास की सजा देकर हिन्दू धर्म के  पुनर जन्म को स्वीकार कर लिया”|

इसके पश्चात सावरकर को अंडमान की सेलुलर जेल में पचास साल का कारावास काटने के लिए भेज दिया गया|कालापानी की सजा के दौरान सावरकर के साथ अत्यधिक अमानवीय व्यवयहार हो रहा था, उन्हे अत्यंत भयानक और क्रूर यातना दी गईं,सावरकर ने सेलुलर जेल की दीवारों पर कंकढ़,कील और कोयले से माँ भर्ती की स्तुति  में 6000 कविताएँ लिखी, उनका मानना था की जब जब सरकार ने मौका दिया तब तब मैंने याचिका दायर की क्योंकि “मेरा लक्ष्य तब तक पूर्ण नहीं हो सकता जब तक मैं जेल से बाहर न आ जाऊं”| वीर सावरकर को 1921 में दस साल की सजा काटने के बाद सेलुलर जेल से रिहा कर दिया गया|

हिंदू महासभा के अध्यक्ष के रूप में कार्य करते हुए, सावरकर ने भारत के एक हिंदू राष्ट्र के विचार का समर्थन किया। उन्होंने देश को आजाद कराने और भविष्य में देश और हिंदुओं की रक्षा के लिए तभी से हिंदुओं का सैन्यीकरण शुरू किया| 

1 फरवरी 1966 को, सावरकर ने दवाओं, भोजन और पानी को त्याग दिया, जिसे उन्होंने आत्मार्पण (मृत्यु तक उपवास) कहा। अपनी मृत्यु से पहले, उन्होंने "आत्महत्या नहीं आत्मार्पण" शीर्षक से एक लेख लिखा था जिसमें उन्होंने तर्क दिया था कि जब किसी का जीवन मिशन समाप्त हो जाता है और समाज की सेवा करने की क्षमता नहीं रह जाती है, तो प्रतीक्षा करने के बजाय इच्छा पर जीवन समाप्त करना बेहतर होता है। 

भारत में भले ही सावरकर विवाद का विषय हो लेकिन जिन अंग्रेजों के खिलाफ उन्होंने स्वतंत्रता के संघर्ष का बिगुल फूँका  था उन्ही अग्रेज़ों के देश इंग्लैंड के इंडिया हाउस पर लगाए गए स्मारक नीले पट्टिकाओं में से एक में लिखा है "विनायक दामोदर सावरकर, 1883-1966, भारतीय देशभक्त और दार्शनिक यहाँ रहते थे"|

Bharat Mata परिवार की ओर से विनायक दामोदर सावरकर के त्याग,बलिदान,और उनके देश प्रेम को शत शत नमन |

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