वायु पुराण: संरचना, विषय-वस्तु और महत्व | भारत माता चैनल
पुराण ज्ञान गंगा की श्रृंखला में चौथे पुराण वायु पुराण का संक्षिप्त परिचय ही हमारी आज की प्रस्तुति है। इस पुराण में वायुदेव ने श्वेत कल्प के प्रसंग में धर्म का उपदेश किया है, इसलिए इसे वायु पुराण कहते हैं।
वायु पुराण की संरचना
दो खंड, 112 अध्याय और 11,000 श्लोकों में विभक्त इस पुराण में खगोल, भूगोल, सृष्टिक्रम, युग, तीर्थ, पितृ, श्राद्ध, राजवंश, ऋषिवंश, वेद शाखाएं, संगीत शास्त्र, शिव भक्ति आदि का भी सविस्तर निरूपण किया गया है। यह अत्यंत प्राचीन पुराण है, जिसका साक्ष्य इस पुराण के अध्याय 61 के श्लोक 119 से 120 में प्राप्त होता है। उस समय राजा परीक्षित के वंशज अधीन का राज चल रहा था। उन्हीं के राज्यकाल में यह पुराण कुरुक्षेत्र में संकलित हुआ। यह भी इसकी विशेषता है, क्योंकि शेष सभी पुराणों की रचना नैमिषारण्य में हुई।
वायु पुराण का उल्लेख अन्य ग्रंथों में
बाणभट्ट ने अपनी कादंबरी में भी इस पुराण का उल्लेख किया है। यह पुराण अन्य पुराणों की तुलना में अपेक्षाकृत न्यून है। इसमें केवल 112 अध्याय हैं तथा मात्र 11,000 श्लोक हैं, जो चार कांडों में विभाजित हैं – प्रक्रिया पाद, अनुशंग पाद, उपसंहार पाद। यह पुराण दो भागों – पूर्व व उत्तर – में विभाजित है। इसके आरंभ में सृष्टि प्रकरण बड़े विस्तार के साथ कई अध्यायों में फैला हुआ है।
कल्पों का निरूपण
इस पुराण में कल्पों का निरूपण अन्य पुराणों से भिन्न है। सृष्टि की एक संस्था को "कल्प" का नाम दिया गया है। सर्वप्रथम आनंद स्वरूप शिव होते हैं, फिर वह इच्छा करते हैं और तब से सृष्टि में प्रवृत्त होते हैं। अतः प्रथम तीन कल्प हैं।
इसी प्रकार सूर्य, मेघ, अग्नि आदि की उत्पत्ति को भी एक कल्प कहा गया है। मेघों के प्रादुर्भाव से दामिनी चमकती है। मेघों को विष्णु रूप, विद्युत को शुद्ध रूप, महेश्वर बताया गया है। इस कल्प निरूपण की एक विशिष्ट बात यह है कि बीच-बीच में गण के स्वरों की उत्पत्ति बताई गई है। स्वरपूर्वक समगान में यज्ञ विधि से सृष्टि की उत्पत्ति होने की बात कही गई है।
यह पुराण भौगोलिक वर्णन के लिए भी विशेष रूप से पठनीय है। जम्बूद्वीप का वर्णन तो विशेष रूप से बड़े ही सुंदर ढंग से किया गया है, जो अध्याय 34 से 39 तक वर्णित है। खगोल का वर्णन भी अन्य पुराणों की भांति इस ग्रंथ में अध्याय 50 से 53 तक विस्तार से उपलब्ध होता है। योग, यज्ञ, ऋषियों व तीर्थों का भी बहुत विस्तृत वर्णन उपलब्ध होता है। वेदों की शाखाओं का वर्णन भी साहित्यिक दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण है।
प्राचीन ब्राह्मण वंशों के इतिहास को जानने के लिए अध्याय 61 से 65 में प्रजापति वंश का अत्यंत उपयोगी विवरण उपलब्ध होता है। अध्याय 86 व 87 शिव तथा संगीत से संबंधित बहुत ही महत्वपूर्ण जानकारी प्रदान करते हैं।
यह पुराण भगवान शिव के चरित्र का विस्तार से वर्णन करता है। पशुपति की पूजा से संबंधित पशुपत योग इस पुराण की एक विशिष्टता है। अन्य किसी पुराण में इतने विस्तार से पशुपत योग का विवरण प्राप्त नहीं होता।
इस पुराण के उत्तर भाग में नर्मदा के तीर्थों का वर्णन है। नर्मदा जल को ही ब्रह्मा, विष्णु व शिव स्वरूप माना गया है तथा इसे धरती पर शिव की द्रव शक्ति कहा गया है। जो नर्मदा के उत्तर तट पर निवास करते हैं, वे भगवान रुद्र के अनुचर माने जाते हैं, और जो दक्षिण तट पर निवास करते हैं, वे विष्णु लोक में प्रतिष्ठित होते हैं।
ओंकारेश्वर से लेकर पश्चिम समुद्र तक नर्मदा जी में दूसरी नदियों के 35 पाप-नाशक संगमों की स्थिति बताई गई है, जिसमें से 11 उत्तर तट पर और 23 दक्षिण तट पर स्थित बताए गए हैं। 35वां संगम तो स्वयं नर्मदा और समुद्र का संगम है।
नर्मदा जी के महात्म्य के अतिरिक्त, सर्वप्रथम भगवान शिव की स्तुति की गई है। मुख्यतः शैव तट प्रधान होने पर भी इसमें विष्णु गदाधर का भी आख्यान प्राप्त होता है, जिसमें मधु-कैटभ की कथा तथा मोहिनी जन्म की कथा का प्रसंग मिलता है।
इसके अतिरिक्त मृत्यु पूर्व के लक्षण, स्वर, ओंकार, लिंगोत्पत्ति, भाव, गंधर्व, मूर्च्छना, लक्षण गीत और अलंकार तथा गया तीर्थ आदि का भी वर्णन प्राप्त होता है।
भारत समन्वय परिवार का प्रयास है कि इस पुराण ज्ञान श्रृंखला के माध्यम से जनमानस तक पुराणों में निहित ज्ञान और कल्याणकारी संदेशों को प्रेषित करें।
हमारी वेबसाइट देखें: BharatMata.online
हमारा YouTube चैनल: Bharat Mata YouTube Channel