देवी उर्मिला - Matra Shakti | Bharat Mata
देवी उर्मिला जी के संबंध मे विशेष जानकारी उपलब्ध नहीं है। रामचरितमानस मे जानकी लघु भगनी के रूप मे ही उर्मिला जी का नाम मिलता है। राष्ट्र कवि श्री मैथिली चरण गुप्त के अतिरिक्त किसी साहित्यकार ने देवी उर्मिला जी के विषय मे कुछ लिखने की आवश्यकता अनुभव नहीं की, और ना किसी ने मूर्ति प्रतिष्ठा के लिए पहल की। भारत माता कल्पना के साथ मन मे चिंतन उद्भूत हुआ और मातृ मंदिर मे भारतीय संस्कृति को जीवन चिर नवीन रूप देने वाली देवियों के साथ उर्मिला जी की मूर्ति की प्रतिष्ठा भी की गई। मूर्ति के हाथ मे आरती दीप है, जिसमे यही भाव दर्शाया गया है की, श्री लक्ष्मण जी के वनवास जाते समय उनकी आरती के लिए ये दीप सजाया गया था, परंतु सौमित्र ने उर्मिला से मिले बिना ही श्री राम का अनुगमन किया। चौदह वर्ष वनवास काल तक देवी उर्मिला अपने प्रियतम की तपश्चर्या मे सहभागी बन ने के लिए दीप लिए प्रतीक्षा मे खड़ी रही, और लंका विजय के पश्चात वापस अयोध्या आने पर उसी दीप से अपने प्रियतम की आरती उतार कर स्वागत किया।
परिचय की दृष्टि से उर्मिला जनक की पुत्री, वैदेही की छोटी बहन हैं। वनवास के समय वे भी जानकी के समान श्री लक्ष्मण जी के साथ जाने का प्रेमाग्रह कर सकती थी परंतु श्री राम काज मे, अपने प्रियतम के सेवक धर्म निर्वाह मे ही उन्होंने अपना धर्म समझा। ऐसा वर्णन मिलता है की इंद्रजीत मेघनाथ को वरदान था की जो महापुरुष चौदह वर्ष तक अखंड ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए फल खा कर निद्रा त्याग करेगा, वही मेघनाथ का वध करने मे समर्थ होगा। जैसे श्री राम जी की लीला मे जानकी जी सहभागी बनी वैसे ही श्री राम काज और मेघनाथ वध के लिए, उर्मिला जी ने अयोध्या मे रहना अपना धर्म समझा। उर्मिला के साथ जाने से श्री राम की लीला मे व्याघात पड़ता। यह बात उर्मिला जी अच्छी तरह जानती थी।
भारतीय संस्कृति का इतिहास इस बात का साक्षी है की भारत की धर्म परायणा, पति व्रता वीरांगनाय, अपने पति, पुत्रों को हसते-हसते राष्ट्र सेवा के लिए भेजती हैं। फिर धर्म के विग्रह रूप भगवान श्री राम और उनकी लीला संगिनी जानकी जी की सेवा मे सुमित्रा जी अपना गौरव समझते हुए कहती हैं, पुत्रवती जुगति जग सोई, रघुपति जगत जात सुत होई’। उसी धर्म का पालन उर्मिला जी ने किया, सुमित्रा जी की तरह उर्मिला जी का संवाद मानस मे नहीं मिलता है, और ना संवाद का अवसर ही था। श्री मैथिलीचरण गुप्त ने इस झांकी को बड़ी भव्यता से अपने महाकाव्य साकेत मे प्रस्तुत किया है। लक्ष्मण जी वनवास जाते समय उर्मिला के पास पहुंचे हैं, तो सीधे जाकर उर्मिला से कहने लगते हैं, की मै तुम्हारा भाव समझता हूँ, परंतु यदि तुम भी प्रस्तुत होगी तो संकोच सोच दोगी। प्रभु बाधा पावेनगे, छोड़ मुझे भी जावेंगे।
उर्मिला लक्ष्मण जी का भाव समझ गई और आगे वाक बंद होगईं। जानकी जी ने उन्हे समझाते हुए कहा, बहन धैर्य धारण करने का अवसर है, फिर अपने मन को ही समझाते हुए उर्मिला जी कहती है, हे मन, तु प्रिय पथ का विघ्न ना बन। भारत जी के साथ गुरु वशिष्ठ राज दरबार, सेना, मताएं, श्री राम जी को मनाने चित्रकूट जाती हैं, तो गुप्त जी के अनुसार उर्मिला भी जाती हैं। वहाँ एक कुटी मे तपश्चर्या मे उर्मिला बैठी हैं, जानकी जी की आज्ञा मिलते ही लक्षमण जी उस कुटी मे कुछ सामग्री लेकर जाते हैं, जिन्हे आभास भी नहीं की वहाँ उर्मिला होंगी। उन्हे वहाँ देख कर लक्ष्मण जी वहाँ से चले जाते हैं। तब उर्मिला जी कहती हैं, "मेरे उपवन के हरिण, आज वनचारी,
मैं बाँध न लूँगी तुम्हें; तजो भय भारी।"
पर जिसमे संतोष तुम्हें हो, मुझे उसी मे है संतोष, प्रियतम को कहीं मेरी चिंता अपने सेवा धर्म मे बाधक तो नहीं होती। फिर तो कहती है,’मेरी चिंता छोड़ो, मग्न रहो नाथ आत्मचिंतन मे, बैठी हूँ फिर भी अपने इस नृप निकेतन मे’। धन्य हैं देवी उर्मिला जो 14 वर्ष पर्यंत साधना कर, अपने पति के धर्म पथ के पालन मे सहयोगी बनी। भारत माता मंदिर मे देवी की मूर्ति प्रतिष्ठा चिरकाल तक सभी को राष्ट्र के लिए त्याग, तपस्या के मार्ग पर अपना रूप यौवन बलिदान करने की प्रेरणा नारी जाती को देती रहेगी।
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