उपनिषदीय ज्ञानोदय और तात्त्विक सम्मान सहित, उत्तर भारत में उत्तराखण्ड के केदारनाथ और दक्षिण भारत के रामेश्वरम् ज्योतिर्लिंगों के बीच एक अद्भुत संबंध है। ये दोनों ज्योतिर्लिंग देशांतर रेखा यानी लॉन्गिट्यूड पर 79 डिग्री के समन्वय पर स्थित हैं, जो भारत को उत्तर से दक्षिण तक विभाजित करती है। इन दो ज्योतिर्लिंगों के बीच पांच महत्वपूर्ण शिव मंदिर भी हैं, जो सृष्टि के पंच तत्व, जल, वायु, अग्नि, आकाश और धरती, का प्रतिनिधित्व करते हैं।
शिव शक्ति अक्ष रेखा
तमिलनाडु के अरुणाचलेश्वर, थिल्लई नटराज, जम्बूकेश्वर, एकाम्बेश्वरनाथ मंदिर और आंध्र प्रदेश के श्रीकालहस्ती शिव मंदिर इन पंच तत्वों को अभिव्यक्त करते हैं। ये सभी मंदिर भी 79 डिग्री देशांतर रेखा पर स्थित हैं, जो इनकी सामंजस्यपूर्ण स्थिति को दर्शाती है। मध्यप्रदेश के उज्जैन में महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग भी इसी श्रृंखला में आता है, हालांकि यह 75.768 डिग्री पर स्थित है, इसलिए यह थोड़ी सी भिन्नता दर्शाता है।
एक ही देशान्तर रेखा पर हैं 7 शिव मंदिर
यह एक संयोग मात्र नहीं हो सकता। इन सात शिव मंदिरों (straight line shiva temples in india )का एक साथ आना और उनके बीच के पंच तत्वों का समन्वय सृष्टि के संतुलन को दर्शाता है। भगवान शिव के ये सभी मंदिर लगभग 4,000 वर्ष पूर्व प्राचीन वास्तुकारों द्वारा बनाए गए थे। इन वास्तुकारों के बीच सैकड़ों किलोमीटर की दूरी थी, इसके पश्चात भी ये मंदिर 79° देशांतर पर सटीक रूप से स्थापित किए गए। केदारनाथ और रामेश्वरम के बीच की दूरी 2383 किलोमीटर है, जो इस सामंजस्यपूर्ण संयोग को और भी रहस्यमय बनाता है।
क्या है इन मंदिरों का सूत्र?
इन 7 शिव मंदिरों का एक ही सीधी रेखा में होना वास्तव में एक आश्चर्यजनक विषय है। यह तथ्य कि ये मंदिर लगभग 4000 साल पूर्व बनाए गए थे, और उस समय अक्षांश और देशांतर मापने की कोई उन्नत तकनीक नहीं थी, इसे और भी रहस्यमय बनाता है। इसका मतलब है कि इन मंदिरों का निर्माण एक अत्यंत सूक्ष्म और सटीक गणना पर आधारित था, जो आज भी हमें चकित करती है।
इन मंदिरों का लॉन्गिट्यूड (देशांतर) के अनुसार एक ही रेखा में होना इस बात का संकेत है कि इनकी योजना और निर्माण में एक गहरी आध्यात्मिक और गणनात्मक समझ का प्रयोग किया गया था। जबकि इन मंदिरों की स्थापना अलग-अलग काल में हुई थी, उनकी सटीक स्थिति और alignment यह सुझाव देते हैं कि शायद उनके निर्माण के पीछे एक विशिष्ट उद्देश्य और विचारधारा का अनुमान लगाया जा सकता है।
यह भी महत्वपूर्ण है कि इन मंदिरों की स्थापना केवल अक्षांश और देशांतर के आधार पर नहीं, बल्कि वास्तु सिद्धांतों और अन्य ज्योतिषीय मानकों के अनुसार भी की गई है। इन 7 शिव मंदिरों को 'शिव शक्ति अक्ष' रेखा के रूप में जाना जाता है, जिसमें रेखा के उत्तर छोर पर केदारनाथ और दक्षिण छोर पर रामेश्वरम स्थित हैं। यह रेखा न केवल भौगोलिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण है, बल्कि आध्यात्मिक दृष्टिकोण से भी इसे एक शक्तिशाली संबंध के रूप में देखा जाता है।
पंच भूत
शिव भगवान के सात मंदिरों में से पाँच मंदिरों में शिवलिंग हैं, जो पञ्चभूमि (प्राकृतिक तत्वों) का प्रतिनिधित्व करते हैं: पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश। ये तत्व हैं जिन पर पूरे ब्रह्मांड का निर्माण हुआ है। पञ्चभूमि या पंच तत्त्व का प्रतिनिधित्व करने वाले मंदिर जो एक सीधी रेखा पर स्थित हैं, वे हैं:
जल का मंदिर - तिरुवानाइकवल – जाम्बुकस्वर मंदिर (10.853383, 78.705455)
अग्नि का मंदिर - तिरुवन्नामलाई – अन्नामलाईयार मंदिर (12.231942, 79.067694)
वायु का मंदिर - कालाहस्ती – श्रीकालाहस्ती मंदिर (13.749802, 79.698410)
पृथ्वी का मंदिर - कांचीपुरम – एकम्बरेश्वर मंदिर (12.847604, 79.699798)
आकाश का मंदिर - चिदंबरम – नटराज मंदिर (11.399596, 79.693559)
रहस्यमयी शिव मंदिरों का वर्णन
1. श्री कालहस्ती मंदिर
श्रीकालहस्ती मंदिर आंध्र प्रदेश के चित्तूर जिले में स्थित एक अत्यंत महत्वपूर्ण और प्राचीन शिव मंदिर है, जिसे दक्षिण का कैलाश और काशी के समकक्ष माना जाता है। यह मंदिर पेन्नार नदी की शाखा, स्वर्णमुखी नदी के तट पर स्थित है और इसे विशेष रूप से राहू-केतु पूजा के लिए जाना जाता है। श्रीकालहस्ती मंदिर का उल्लेख स्कंद पुराण, शिव पुराण और लिंग पुराण में भी मिलता है, जो इसके ऐतिहासिक और धार्मिक महत्व को दर्शाता है। यह मंदिर दक्षिण के पंचतत्व लिंगों में वायु तत्त्व लिंग के रूप में प्रतिष्ठित है। इस कारण, इस मंदिर में पूजारी भी शिवलिंग का प्रत्यक्ष स्पर्श नहीं कर सकते। शिवलिंग के पास एक स्वर्ण पट्ट स्थापित है, जिस पर फूल-माला और अन्य पूजा सामग्री चढ़ाई जाती है। मंदिर की पिंडी की ऊंचाई लगभग चार फीट है और इसमें मकड़ी और हाथी की आकृतियाँ स्पष्ट रूप से दिखाई देती हैं। इस स्थान का नाम तीन प्रमुख तत्वों पर आधारित माना जाता है: 'श्री' (मकड़ी), 'काल' (सर्प) और 'हस्ती' (हाथी)। मान्यता के अनुसार, मकड़ी ने शिवलिंग पर तपस्या करते हुए जाल बनाया, सर्प ने लिंग से लिपटकर आराधना की, और हाथी ने शिवलिंग को जल से स्नान कराया। इन तीनों की मूर्तियाँ भी यहाँ स्थापित की गई हैं, जो इस स्थान की पौराणिक कथा व मान्यता को जीवित रखती हैं। मंदिर की आध्यात्मिक और धार्मिक महत्ता इसके विशेष पूजाविधियों और सांस्कृतिक संदर्भ से भी झलकती है, जो भक्तों और तीर्थयात्रियों को इस पवित्र स्थल की ओर आकर्षित करती है।
2. एकाम्बेश्वरनाथ मंदिर
कांचीपुरम्, तमिलनाडु में स्थित एकाम्बेश्वरनाथ मंदिर एक ऐतिहासिक और धार्मिक दृष्टि से बेहद खास है। यहां की एक प्रसिद्ध कहानी के अनुसार, देवी पार्वती ने भगवान शिव को खुश करने के लिए यहाँ एक विशेष बालूरेत शिवलिंग की स्थापना की और गहरी तपस्या की।
मंदिर की खासियत और महत्व:
- पृथ्वी तत्व का प्रतिनिधित्व: एकाम्बेश्वरनाथ मंदिर का शिवलिंग पंचतत्वों में पृथ्वी तत्व का प्रतीक माना जाता है। इसका मतलब है कि यह शिवलिंग पृथ्वी तत्व की ऊर्जा को समेटे हुए है, और इसकी पूजा का विशेष महत्व है।
- वास्तुकला: यह भव्य मंदिर लगभग 25 एकड़ में फैला हुआ है और इसकी ऊंचाई करीब 200 फीट है। इसकी 11 मंजिलें मंदिर की भव्यता और महत्व को दर्शाती हैं।
- इतिहास: मंदिर की स्थापना 7वीं शताब्दी में हुई थी, लेकिन इसे 9वीं शताब्दी में चोल राजाओं द्वारा पुनर्निर्मित किया गया था। यह बताता है कि मंदिर का धार्मिक और सांस्कृतिक महत्व समय के साथ भी स्थिर रहा है।
- धार्मिक कथा: एक किंवदंती के अनुसार, देवी पार्वती ने शिव को प्रसन्न करने के लिए यहां तपस्या की और बालूरेत शिवलिंग स्थापित किया। यह कहानी मंदिर की आध्यात्मिक महत्ता को और भी गहराई से समझाती है।
3. अरुणाचलेश्वर मंदिर
श्री अरुणाचलेश्वर मंदिर, तमिलनाडु के अरुणाचल पर्वत पर स्थित एक पौराणिक और ऐतिहासिक स्थल है, जो भगवान शिव के अग्नि रूप के प्रतिष्ठान के रूप में जाना जाता है। इस मंदिर के संबंध में कुछ प्रमुख तथ्य और किंवदंतियाँ निम्नलिखित हैं:
किंवदंतियाँ और पौराणिक मान्यताएँ
1. अंधकार और अग्नि स्तंभ की कथा: पौराणिक कथाओं के अनुसार, एक बार माता पार्वती ने भगवान शिव से विनती की कि वे अपने नेत्र बंद कर लें। शिव ने उनकी बात मानते हुए अपनी आँखें बंद कर दीं, जिससे पूरे ब्रह्मांड में अंधकार छा गया। इस अंधकार को दूर करने के लिए भगवान शिव के भक्तों ने कठिन तपस्या की, जिसके परिणामस्वरूप भगवान शिव अरुणाचल पर्वत पर एक अग्नि स्तंभ के रूप में प्रकट हुए। इस कारण इस स्थान पर भगवान शिव की पूजा अरुणाचलेश्वर के रूप में की जाती है और शिवलिंग को अग्नि लिंगम कहा जाता है।
मंदिर का निर्माण और इतिहास
- निर्माण की तिथियाँ: मंदिर का निर्माण 7वीं शताब्दी में हुआ था, लेकिन इसका जीर्णोद्धार 9वीं शताब्दी में चोल राजाओं द्वारा किया गया। इसके अलावा, पल्लव और विजयनगर साम्राज्य के राजाओं ने भी इस मंदिर में निर्माण कार्य कराया। मंदिर का इतिहास तमिल ग्रंथों, जैसे थेवरम और थिरुवसागम, में मिलता है।
- विजयनगर साम्राज्य का योगदान: विजयनगर साम्राज्य के राजा कृष्णदेव राय ने मंदिर में हजार स्तंभों वाला एक हॉल बनवाया। इन स्तंभों की नक्काशी नायक वंश के शासकों द्वारा कराई गई थी, जो भारतीय स्थापत्य कला का अद्वितीय उदाहरण है और बहुत से मंदिरों में देखने को नहीं मिलती।
मंदिर की संरचना और विशेषताएँ
- शिवलिंग और गर्भगृह: मंदिर के गर्भगृह में एक 3 फुट ऊँचा शिवलिंग स्थापित है, जिसका आकार गोलाई लिए हुए चौकोर है। इस शिवलिंग को लिंगोंत्भव कहा जाता है। यहाँ भगवान शिव अग्नि के रूप में विराजमान हैं, और उनके चरणों में भगवान विष्णु को वाराह और ब्रह्मा जी को हंस के रूप में दर्शाया गया है।
- अष्टलिंग दर्शन: मुख्य मंदिर तक पहुँचने के मार्ग में आठ शिवलिंग स्थापित हैं, जिन्हें इंद्र, अग्निदेव, यम देव, निरुति, वरुण, वायु, कुबेर, और ईशान देव द्वारा पूजा जाता है। इन आठ शिवलिंगों के दर्शन करना अत्यंत पवित्र माना जाता है।
4. जम्बूकेश्वर मंदिर
जम्बुकेश्वर मंदिर, तमिलनाडु के थिरुवनईकवल में स्थित एक ऐतिहासिक और धार्मिक महत्व का स्थल है, जो भगवान शिव के जल (नीर) तत्व के रूप में प्रकट होने की मान्यता से जुड़ा हुआ है। यहाँ के मुख्य देवता भगवान जम्बुकेश्वर (भगवान शिव) और देवी अकिलंदेश्वरी (देवी पार्वती) हैं।
मंदिर की प्रमुख विशेषताएँ:
- पानी का लिंगम (अप्पू लिंगम): इस मंदिर में शिवलिंग का अधिकांश भाग पानी के अंदर डूबा हुआ है, जिससे इसे "अप्पू लिंगम" या पानी का लिंगम कहा जाता है। इसके कारण इस मंदिर को 'अप्पू स्थलम' के रूप में भी पूजा जाता है। यह विशेषता इस स्थल को अन्य शिव मंदिरों से अलग करती है और इसे एक अद्वितीय धार्मिक अनुभव प्रदान करती है।
- स्वयंभू शिवलिंग: भगवान शिव का यह लिंगम "स्वयंभू" (स्वयं प्रकट) कहा जाता है, जिसका अर्थ है कि यह लिंगम स्वाभाविक रूप से प्रकट हुआ और इसे किसी बाहरी निर्माण या स्थापित विधि से नहीं बनाया गया। यह इस मंदिर की प्राचीनता और दिव्यता को दर्शाता है।
- जम्बू वृक्ष की मान्यता: मंदिर का नाम 'जम्बुकेश्वरम' इसलिए पड़ा क्योंकि भगवान शिव यहाँ एक जम्बू वृक्ष के नीचे विराजमान हैं। इस वृक्ष के साथ जुड़ी मान्यता और पौराणिक कथा इस मंदिर के धार्मिक महत्व को और भी बढ़ाती है।
- उपदेश स्थल: एक किंवदंती के अनुसार, यहाँ भगवान शिव और देवी पार्वती के मंदिर एक-दूसरे के आमने-सामने स्थित हैं, जिससे इस स्थान को 'उपदेश स्थल' भी कहा जाता है। यह किंवदंती इस मंदिर के महत्व और पवित्रता को दर्शाती है।
- थिरुवनैक्का नाम की उत्पत्ति: इस पवित्र स्थल पर पूजा करने के बाद एक हाथी को आशीर्वाद दिए जाने की कथा के कारण, इस मंदिर को 'थिरुवनैक्का' के नाम से जाना जाने लगा। यह नाम इस स्थल की दिव्यता और इसकी धार्मिक परंपराओं का प्रतीक है।
5. थिल्लई नटराज मंदिर
नटराज मंदिर, जिसे थिल्लई नटराज मंदिर भी कहा जाता है, तमिलनाडु के चिदंबरम में स्थित एक प्रसिद्ध और ऐतिहासिक शिव मंदिर है। इस मंदिर का गहरा पौराणिक और सांस्कृतिक महत्व है और यह भगवान शिव के नटराज रूप को समर्पित है।
मंदिर का इतिहास और महत्व
- नाम और स्थान: चिदंबरम शहर का नाम "विचारों से भरा हुआ" या "ज्ञान का वातावरण" के अर्थ में आता है। पहले इसे थिल्लई कहा जाता था, जहाँ एक प्राचीन शिव मंदिर स्थित था।
- निर्माण और वास्तुकला: नटराज मंदिर वास्तुकला की उत्कृष्टता और आध्यात्मिकता का प्रतीक है। इसमें पाँच मुख्य हॉल हैं: कनक, चित, नृत्य, देव और राज सभा। मंदिर का निर्माण 10वीं शताब्दी में चोल वंश के दौरान हुआ था। चोल वंश के राजा भगवान शिव को नटराज के रूप में पूजते थे। चोल काल में यह मंदिर धार्मिक और सांस्कृतिक केंद्र था।
- वास्तुकला की विशेषताएँ: मंदिर की सबसे अनूठी विशेषता नटराज की आभूषणों से सजी छवि है। नटराज भगवान शिव के सबसे महत्वपूर्ण रूपों में से एक हैं, जो नृत्य, सृजन और संहार के प्रतीक हैं। मंदिर का परिसर दक्षिण भारत के सबसे पुराने और महत्वपूर्ण मंदिर परिसरों में से एक है।
- सांस्कृतिक और ऐतिहासिक महत्व: नटराज मंदिर न केवल शिव पूजा का प्रमुख केंद्र है, बल्कि यह वैष्णववाद, शक्तिवाद और अन्य धार्मिक विषयों का भी श्रद्धा के साथ प्रतिनिधित्व करता है। थिरुमूलर जैसे प्राचीन तमिल विद्वान ने अपने ग्रंथ थिरुमंदिरम में भगवान नटराज के महत्व को सिद्ध किया। थिरुमूलर का ग्रंथ पूरे विश्व के लिए एक अद्भुत वैज्ञानिक मार्गदर्शिका है। वैज्ञानिकों ने भी यह सिद्ध किया है कि भगवान नटराज के पैर के अंगूठे में दुनिया के चुंबकीय भूमध्य रेखा का केंद्र बिंदु है।
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