क्या है शंख का धार्मिक और वैज्ञानिक महत्व | Shankha | Shankh Naad

हिंदू धर्म में शंख को परम पुण्यकारी और पवित्र माना जाता है. धार्मिक मान्यता है कि शंख से निकलने वाली ध्वनि मानसिक शांति दिलाती है और घर की नकारात्मक ऊर्जा को खत्म कर देती है. शंख मुख्य रूप से एक समुद्री जीव का ढांचा है| पौराणिक मान्यताओं में शंख की उत्पत्ति समुद्र से मानी जाती है| श्री कृष्ण द्वारा समुद्र तट पर जाकर शंखासुर को मारने पर उसका खोल (शंख) शेष रह गया था। उसी से शंख की उत्पत्ति हुई।

शंख का सांस्कृतिक महत्व | Shankh

सुख-समृद्धि एवं सौभाग्यदायी शंख को भारतीय संस्कृति में मांगलिक चिह्न के रूप में स्वीकार किया गया है। सनातन धर्म में सभी वैदिक कार्यों में शंख का विशेष स्थान है। शंख भगवान विष्णु का प्रमुख आयुध है। शंख की ध्वनि आध्यात्मिक शक्ति से संपन्न होती है।

शंख के प्रकार: वामावर्ती और दक्षिणावर्ती शंख | dakshinavarti shankh

शंख कई प्रकार के होते हैं, लेकिन वामावर्ती और दक्षिणावर्ती शंख का ज्यादा महत्व है। दक्षिणावर्ती शंख की उत्पत्ति समुद्र मंथन के समय सागर से हुई।

दक्षिणावर्ती शंख: दक्षिणावर्ती शंख के शीर्ष में चंद्र देवता, मध्य में वरुण, पृष्ठ भाग में ब्रह्मा और अग्र भाग में गंगा, यमुना तथा सरस्वती का वास माना गया है। ब्रह्मवैवर्त पुराण के अनुसार शंख अनेक प्रकार के रूपों में विराजमान होकर देवताओं की पूजा में निरन्तर पवित्र माना जाता है, क्योंकि यह देवताओं को प्रसन्न करने के लिए अचूक साधन है। इसके पवित्र जल को तीर्थमय माना जाता है।

शंख: महत्वपूर्ण सांस्कृतिक प्रतीक | देवताओं का निवास

जहां कहीं भी शंख ध्वनि होती है, वहां लक्ष्मीजी सम्यक प्रकार से विराजमान रहती हैं। जो शंख के जल से स्नान कर लेता है, उसे सम्पूर्ण तीर्थों में स्नान का फल प्राप्त हो जाता है। जहां पर शंख रहता है, वहां भगवान श्री हरि, भगवती लक्ष्मी सहित सदा निवास करते हैं। और वहाँ अमंगल का कोई स्थान नहीं रहता ।

शंख की पवित्रता और धार्मिक मान्यता

शंख को विजय का प्रतीक माना जाता है। किसी भी धार्मिक अनुष्ठान के आरम्भ में शंख ध्वनि की जाती है। हमारी पौराणिक मान्यताओं का वैज्ञानिक आधार भी है और आज इसे विज्ञान ने स्वीकार किया है| मान्यता है कि इसकी ध्वनि जहां तक पहुँचती है, वहां तक के वातावरण में रहने वाले सभी हानिकारक कीटाणु नष्ट हो जाते हैं, ऐसा शोधों से भी स्पष्ट हुआ है। शंख का जल सभी को पवित्र करने वाला माना गया है। इसी वजह से आरती के बाद श्रद्धालुओं पर शंख से जल छिड़का जाता है।

वैदिक कार्यों में शंख का स्थान

हिन्दू धर्म मे शंख को अत्यंत पवित्र माना गया है। शंख विजय ,यश और कीर्ति का भी प्रतिनिधित्व करता है। वैदिक काल मे शंख मे जल भरकर राजाओ का जलाभिषेक कर उनका राज्याभिषेक किया जाता था।

अथर्ववेद के अनुसार शंख से राक्षसों का नाश होता है - शंखेन हत्वा रक्षांसि। देवी देवताओ ने भी युद्ध के समय दैत्यों मे भय उत्पन्न करने हेतु शंखनाद किया था जिसके कारण उनका मनोबल टूट जाता था और वह आसानी से मारे जाते थे। श्री कृष्ण के पाञ्चजन्य शंख की ध्वनि भी सिंह के गर्जना से भी कहीं अधिक भयंकर थी।

शंख की उत्पत्ति: पौराणिक कथा

विष्णु पुराण के अनुसार शंख की उत्त्पत्ति समुद्र मंथन से हुयी थी। समुद्र मंथन के समय समुद्र से निकले 14 रत्नो मे से एक शंख की भी उत्त्पति हुयी थी इसीलिये शंख को लक्ष्मी जी का भाई भी मानते हैं क्योकि लक्ष्मी जी समुद्रराज की पुत्री हैं इसीलिये शंख को लक्ष्मी जी का भाई मानते हैं। ऐसा माना जाता है की जहाँ शंख का निवास होता है वहीं लक्ष्मी जी का भी वास होता है।

शंख में साक्षात् भगवान श्रीहरि का निवास है और वे इसे सदैव अपने हाथ में धारण करते हैं । मंगलकारी होने व शक्तिपुंज होने से अन्य देवी-देवता जैसे सूर्य, देवी और वेदमाता गायत्री भी इसे अपने हाथ में धारण करती हैं; इसीलिए शंख का दर्शन सब प्रकार से मंगल प्रदान करने वाला माना जाता है ।

शंख में अन्य देवताओं का भी निवास माना गया है । यह कहा गया है कि शंख के मूल भाग में चंद्रमा, कुक्षि में वरुण देव, पृष्ठ भाग में प्रजापति तथा अग्र भाग में गंगा और सरस्वती निवास करती हैं ।

सांस्कृतिक प्रतीक चिन्ह शास्त्र सम्मत होने के साथ - साथ विज्ञान सम्मत भी है| संक्षेप में कुछ विशिष्ट शंख जिनके उपयोग के प्रमाण विभिन्न पौराणिक कथाओ के माध्यम से प्राप्त होते है वे इस प्रकार है-

प्रसिद्ध शंख और उनकी कहानियाँ | महाभारत के युद्ध में शंख का महत्व

वेदों-पुराणों में शंख के कई प्रकार बताए गए हैं. पुराणों में वर्णित है कि महाभारत के युद्ध के समय युधिष्ठिर के पास अनंतविजय, अर्जुन के पास देवदत्त, भीम के पास पौंड्रिक, नकुल के पास सुघोष, सहदेव के पास मणिपुष्पक और श्रीकृष्ण के पास पाञ्चजन्य शंख थे|

पाञ्चजन्य

ये श्रीकृष्ण का प्रसिद्ध शंख था। जब श्रीकृष्ण और बलराम ने महर्षि सांदीपनि के आश्रम में शिक्षा समाप्त की, तब उन्होंने गुरुदक्षिणा के रूप में अपने मृत पुत्र को मांगा। तब दोनों भाई समुद्र के अंदर गए जहां श्रीकृष्ण ने शंखासुर नामक असुर का वध किया। तब उसके मरने के बाद उसका शंख (खोल) शेष रह गया जो श्रीकृष्ण ने अपने पास रख लिया। वही पाञ्चजन्य के नाम से प्रसिद्ध हुआ।

गंगनाभ

ये गंगापुत्र भीष्म का प्रसिद्ध शंख था जो उन्हें उनकी माता गंगा से प्राप्त हुआ था। गंगनाभ का अर्थ होता है गंगा की ध्वनि। जब भीष्म इस शंख को बजाते थे, तब उसकी भयानक ध्वनि शत्रुओं के हृदय में भय उत्पन्न कर देती थी। महाभारत युद्ध का आरंभ पांडवों की ओर से श्रीकृष्ण ने पाञ्चजन्य और कौरवों की ओर से भीष्म ने गंगनाभ को बजा कर ही किया था।

हिरण्यगर्भ

ये सूर्यपुत्र कर्ण का शंख था। कहते हैं ये शंख उन्हें उनके पिता सूर्यदेव से प्राप्त हुआ था। हिरण्यगर्भ का अर्थ सृष्टि का आरंभ होता है और इसका एक संदर्भ ज्येष्ठ के रूप में भी है। कर्ण भी कुंती के ज्येष्ठ पुत्र थे।

अनंतविजय

ये महाराज युधिष्ठिर का शंख था जिसकी ध्वनि अनंत तक जाती थी। इस शंख को साक्षी मान कर चारों पांडवों ने दिग्विजय किया और युधिष्ठिर के साम्राज्य को अनंत तक फैलाया। इस शंख को धर्मराज ने युधिष्ठिर को प्रदान किया था।

विदारक

ये महारथी दुर्योधन का भीषण शंख था। विदारक का अर्थ होता है विदीर्ण करने वाला या अत्यंत दुःख पहुंचाने वाला। ये शंख भी स्वाभाव में इसके नाम के अनुरूप ही था जिसकी ध्वनि से शत्रुओं के हृदय विदीर्ण हो जाते थे। इस शंख को दुर्योधन ने गांधार की सीमा से प्राप्त किया था।

पौंड्र

ये महाबली भीम का प्रसिद्ध शंख था। इसका आकार बहुत विशाल था और इसे बजाना तो दूर, भीमसेन के अतिरिक्त कोई अन्य इसे उठा भी नहीं सकता था। कहते हैं कि जब भीम इसे पूरी शक्ति से बजाते थे तो उसकी ध्वनि से शत्रुओं का आधा बल वैसे ही समाप्त हो जाया करता था। ये शंख भीम को नागलोक से प्राप्त हुआ था।

देवदत्त

ये अर्जुन का प्रसिद्ध शंख था जो पाञ्चजन्य के समान ही शक्तिशाली था। इस शंख को स्वयं वरुणदेव ने अर्जुन को वरदान स्वरूप दिया था। इस शंख को धारण करने वाला कभी भी धर्मयुद्ध में पराजित नहीं हो सकता था। जब पाञ्चजन्य और देवदत्त एक साथ बजते थे तो दुश्मन युद्धस्थल छोड़ कर पलायन करने लगते थे।

सुघोष

ये माद्रीपुत्र नकुल का शंख था। अपने नाम के स्वरूप ही ये शंख किसी भी नकारात्मक शक्ति का नाश कर देता था।

मणिपुष्पक

ये सहदेव का शंख था। मणि और मणिकों से ज्यादा ये शंख अत्यंत दुर्लभ था। नकुल और सहदेव को उनके शंख अश्विनीकुमारों से प्राप्त हुए थे।

यञघोष

ये द्रौपदी के भाई धृष्टद्युम्न का शंख था जो उसी के साथ अग्नि से उत्पन्न हुआ था और तेज में अग्नि के समान ही था। इसी शंख के उद्घोष के साथ वे पांडव सेना का सञ्चालन करते थे।

भारत समन्वय परिवार का प्रयास है की सनातन संस्कृति के प्रतीक चिन्हों के महत्व को जन -जन तक प्रेषित करे| हमे गर्व है की हमारे प्रतीक चिन्हो को आज विज्ञान का समर्थन प्राप्त है|