Atharvaveda: जानिए क्या है अथर्ववेद का महत्व? | Ved & Puran | Bharat Mata

यं ब्राह्मणं वेदगुं अभिजञ्जा.. अकिं चनं कामभेव अस्त्तं।

श्रद्धा हि सो ओद्यमिमं अतारि.. तिण्णो च पारं अखिलो अकंखो।।

अर्थात जिसने उस वेदज्ञ ब्राह्मण को जान लिया जिसके पास कुछ धन नहीं और जो सांसारिक कामनाओं में आसक्त नहीं वो आकांक्षारहित मनुष्य इस संसार रुपी सागर से तर जाता है।

बौद्ध धर्म के ग्रन्थ एवं त्रिपिटक के अति महत्वपूर्ण भाग सुत्तनिपात में स्वयं महात्मा बुद्ध द्वारा प्रतिपादित इस श्लोक से वेदों की महानता का आभास हो जाता है। भारतीय संस्कृति के गौरव का आधार - वेद, विश्व के प्रथम धर्मग्रन्थ एवं प्राचीनतम साहित्य के रूप में सनातन धर्म की यशोवृद्धि का अद्भुत कारक है। सनातन वर्णाश्रम धर्म का मूल – वेद ज्ञान का ग्रन्थ है जो अपने चार भागों – ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद एवं अथर्ववेद द्वारा ईश्वर, ब्रह्माण्ड, जीवन आदि का ज्ञान एवं मनुष्य से सम्बंधित समस्त समस्याओं का समाधान प्रदान करता है। स्वयं ईश्वर द्वारा रचित अपौरुषेय वेद प्राचीन काल से ही भारतीय जनमानस की आस्था एवं श्रद्धा के ग्रन्थ रहे हैं जिनसे मानव सभ्यता के उद्गम एवं विकास की यात्रा का ज्ञान प्राप्त होता है।

अथर्ववेद का संक्षिप्त परिचय (Atharvaveda Meaning in Hindi)

वेद ज्ञान की श्रृंखला में चौथा एवं अंतिम वेद है – अथर्ववेद इस वेद को ब्रह्मवेद की उपाधि से भी विभूषित किया गया है। थर्व का अर्थ होता है कम्पन.. इस प्रकार अथर्व का अर्थ होता है अकम्पन.. जो अथर्ववेद द्वारा उपदेशित ज्ञान-वस्तु को परिभाषित करता है। अतः स्थिरता से युक्त अथर्ववेद के अनुसार जीवन रुपी तपस्या में, जो मनुष्य ज्ञान से श्रेष्ठ एवं विवेकपूर्ण कर्म करते हुए ईश्वर की आराधना में लीन रहता है. वो ही अकंप बुद्धि को प्राप्त करके मोक्ष रुपी फल प्राप्त करता है।

भाषा एवं स्वरुप के आधार पर ऐसी मान्यता है कि अथर्ववेद की रचना अंतिम वेद के रूप में हुई थी। 'अथर्वन' का मूल अर्थ 'पुजारी' है और अथर्ववेद-संहिता के मंत्रों को अथर्व ऋषि ने ही प्रतिष्ठापित किया था। ऐसा कहा जाता है कि अथर्व ऋषि के मुख से प्रस्फुटित मंत्रों के आधार पर ऋषि अंगिरा ने चार वेदों में से एक अथर्ववेद को साकार रूप प्रदान किया।

इस प्रकार अंगिरा ऋषि को अथर्ववेद के रचियता के रूप में ख्याति प्राप्त है और इसी कारण अथर्ववेद को 'अथर्वांगिरस वेद' भी कहा जाता है।

अथर्ववेद की शाखाएं

अथर्ववेद की दो शाखाओं शौनक और पिप्पलाद में संचरित हुए, अधिकतर स्तोत्र ऋग्वेद के स्तोत्रों के छदों में रचित हैं। ऋग्वेद एवं अथर्ववेद में इसके अतिरिक्त अन्य कोई समानता नहीं है। अथर्ववेद दैनिक जीवन से सम्बंधित तांत्रिक धर्म कार्यों को व्यक्त करता है तथा इसका स्वर ऋग्वेद के धार्मिक स्तुतीय स्वर से भिन्न है जो महान देवों को महिमामंडित करता है और सोम के प्रभाव में कवियों की उत्प्रेरित दृष्टि का वर्णन करता है।

गंभीर रोगों का निदान और उनकी चिकित्सा, आयुर्वेद, जीवाणु विज्ञान, वनस्पति ज्ञान, असंख्य जड़ी-बूटियाँ, भूगोल, खगोल, अर्थशास्त्र के मौलिक सिद्धान्त, राजनीति के गूढ़ तत्त्व, राष्ट्रभूमि तथा राष्ट्रभाषा की महिमा, व्याधियों एवं रोगों का विवेचन, मोक्ष आदि विभिन्न लोकोपकारक विषयों का निरूपण अथर्ववेद में समाहित है। आयुर्वेद की दृष्टि से अत्यधिक महत्वपूर्ण अथर्ववेद चिकित्सा के अतिरिक्त स्तुतिपरक मंत्रों तथा विज्ञान एवं दर्शन के मंत्रों से सुसज्जित है। अथर्ववेद संहिता के अनुसार जिस शासक के राज्य में अथर्ववेद जानने वाला विद्वान शान्तिस्थापन के कर्म में निरत रहता है वह राष्ट्र उपद्रवरहित होकर निरन्तर उन्नति करता जाता है

अथर्ववेद का महत्व

इस वेद में आर्य एवं अनार्य विचार धाराओं का उत्कृष्ट संयोजन हैकुल 20 काण्ड, 730 सूक्त एवं 5987 मंत्रों से युक्त, अथर्ववेद के महत्त्वपूर्ण विषय हैं -

  • ब्रह्मज्ञान
  • औषधि प्रयोग
  • रोग निवारण
  • जन्त्र-तन्त्र आदि।

आयुर्वेद चिकित्सा तथा औषधियों आदि के वर्णन होने के कारण इसे 'भैषज्य वेद' भी कहा जाता है। अथर्ववेद अनेक विषयों के ज्ञान का भंडार है जिसमें दर्शन, समाज शिक्षा, राजनीति कृषि, विज्ञान और चिकित्सा से संबंधित मंत्रों की प्रधानता है| इस प्रकार अथर्ववेद धर्म, कर्म एवं मोक्ष के साधन की अद्भुत कुंजी है जो न केवल प्राचीन काल में सार्थक था, अपितु आज के परिदृश्य में भी उतना ही मूल्यवान है।

सकल विश्व और मानव कल्याण को समर्पित वेद ज्ञान को भारत माता की ओर से शत-शत नमन

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